एन डी टी वी पर एक दिवसीय पाबन्दी:: देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी पर जकड़ते शिकंजे का एक और कदम

मोदी नीत सरकार जब से गद्दीनशीन हुई है तभी से देश के हालात बदलते नज़र आ रहे हैं. मीडिया और खास कर के इलेक्ट्रॉनिक (टी.वी) मीडिया पर जिस तरह से सरकार ने पकड़ बनाई है वह इस देश में पहले इस स्तर पर देखने को नहीं मिला था. कमोबेश सभी तथाकथित मुख्यधारा के चैनल हो या प्रिंट मीडिया आज एक खास तरह की लाइन का पालन करते नज़र आते हैं. पत्रकारिता के कुछ मापदंड या कहे आचारसंहिता होती हैं जिसमे अव्वल है तटस्थता, समाचार की सत्यवादिता, निष्पक्षता और पाठकों के प्रति सार्वजनिक जवाबदेही, किन्तु हमारे देश की पत्रकारिता इन सब मापदंडो के विपरीत एक ख़ास राजनीतिक लाइन और व्यक्ति केन्द्रित हो गयी है.

भारत में इसकी शुरुआत हाल में ना हो कर तब हुई जब नव-उदारवादी नीति अपनाते हुए कांग्रेसी सरकार ने मीडिया को अपने चंगुल में कसने का कार्यक्रम शुरू किया , याद रहे कि ‘पेड न्यूज़’ की शुरुआत कांग्रेसी सरकार की ही दें रही है. जो भी सरकार रही हो मीडिया उसके निशाने पर रहा, चाहे वो नेहरु द्वारा कम्युनिस्ट पत्रिका क्रॉसवर्ड पर पाबन्दी हो या इंदिरा गाँधी द्वारा समूचे मीडिया को सरकारी संस्था में तब्दील करने का मंसूबा हो. आज भी यही मंसूबा सरकार के द्वारा उठाये कदमों में झलकता है.
सरकार और खास कर के दक्षिणपंथी सरकार मीडिया पर एक गलघोटू पकड़ बनाने के लिये हमेशा व्यतीत रहती है. स्वतंत्र मीडिया दक्षिणपंथी विचार के फैलाव में सबसे बड़ा अवरोध साबित होता है, इसीलिये उनकी निगाह प्रगातीशील स्वतंत्र पत्रकारिता के खात्मे पर रहती है.
हिटलर ने मीन कम्फ, में लिखा था:
“उसे (सरकार को) ख़ास कर के प्रेस के ऊपर कठोर नियंत्रण रखना चाहिये; क्योंकि लोगों पर इसका प्रभाव सबसे मजबूत और सबसे तेज़ होता है, क्योंकि यह कभी कभी एक समय के लिये ना हो कर इसके बातों की पुनरावृत्ति होती है, इसी में इसकी शक्ति निहित है…राज्य को कभी भी “प्रेस की स्वतंत्रता” जैसे बेहूदा बातों में आकर दिशा भ्रमित होना नहीं होना चाहिये…उसे निर्ममता पूर्ण संकल्प के साथ इस लोकप्रिय शिक्षा के साधन को राज्य और राष्ट्र की सेवा में लगा देना चाहिये…” (अँगरेज़ी से अनुवाद हमारा)
हिटलर के लिये राज्य और राष्ट्र सेवा का मतलब था उसकी सरकार और नाज़ी पार्टी, इसी विचारधारा को आगे ले जाते हुए, जर्मनी के सारे अख़बारों पर नाज़ी सरकार का एकछत्र नियंत्रण कायम किया गया, सरकार और हिटलर के खिलाफ़ किसी भी तरह के विरोध को देशद्रोह की परिधि में ला कर, हर प्रकार के लोकतान्त्रिक विरोध को पूरी तरह से कुचल दिया गया था.
दक्षिणपंथी सरकार देशभक्ति को अपनी जागीर मानती है, और उसके द्वारा उठाये गये कदम की आलोचना देशद्रोह की श्रेणी में आता है.
उग्र देशभक्ति और देश के नाम पर उन्माद फैलाना, एक खास राष्ट्रीयता यह धर्म देशभक्ति की श्रेणी में आते हैं और बाकि सारे देशद्रोही, इस मुहीम को अंजाम देने के लिये जिस तंत्र पर अधिकार चाहिए वो मीडिया है. देश में घट रहे घटनाक्रम पर यदि हम नज़र डालते हैं तो उपर्युक्त बात थोड़ी और साफ़ हो जाती है. जे.एन.यू से लेकर सर्जिकल स्ट्राइक तक, चैनलों और अख़बारों में एक खास तरीके की समानता देखी जा सकती है, इनके समाचार को पेश करने और विश्लेषण में सरकारी बातों का पूर्ण समर्थन और कोई भी ऐसी बात को प्रदर्शित नहीं करना जो सरकारी लाइन से इतर हो. कई बार तो इन चैनलों के एंकर पत्रकार कम और सरकारी/पार्टी वक्ता ज्यादा लगते हैं. मीडिया पर पूंजीवादी पकड़ पूरी तरह से कायम हो चुकी है, अम्बानी सी.एन.एन – आई .बी.एन, सी.एन.एन – आवाज़, जैसे चैनल के मालिक हैं, और वहीँ दूसरी और ज़ी टी.वी. के मालिक सुभाष चंद्रा भाजापा के संसद है. इसी तरह सारे चैनल और प्रमुख अख़बार या तो किसी व्यापारिक घराने द्वारा संचालित हैं, यह उनमे किसी बड़े पूंजीपति का अहम् हिस्सा है. ऐसे में इनसे किसी भी प्रकार की सरकारी नीति के खिलाफत की अपेक्षा करना दिवास्वपन से कम नहीं.
सवाल उठता है कि एन.डी.टी.वी. को ही क्यों प्रतिबंधित किया गया?
जैसा कि कई जगहों पर लिखा गया सरकार के मुताबिक चैनल ने सेना के पठानकोट ऑपरेशन की कवरेज दिखाई जिसकी वजह से देश की सुरक्षा और सामरिक महत्त्व की जानकारियां अतंकवादियो को मिली, ऐसा करना Cable TV (Regulation) Act, 1995 के खिलाफ है। और इस प्रतिबन्ध के पीछे कोई दूसरी वजह नहीं है।
इस तर्क को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति रह चुके मार्कण्डेय काटजू ने कोरी लफ्फबाजी बताते हुए कहा कि इस Act के programme code के rule 6(1)(p) के तहत सिर्फ “सीधा प्रसारण (लाइव कवरेज)” दिखाने की मनाही है। NDTV ने ऑपरेशन का सीधा प्रसारण नहीं दिखाया था बल्कि उस ऑपरेशन की केवल रिपोर्टिंग की थी। इसका मतलब की सरकार के द्वारा किया गया बैन खुद में ही गैरकानूनी है।
अगर “सेंसिटिव इंफॉर्मेशन” का खुलासा करने के लिए ये बैन लगा होता, तो कई अन्य चैनल और अखबार भी इस बैन के शिकार होते।
– 2 जनवरी को एबीपी न्यूज़ ने बताया था कि 2 आतंकवादी अभी भी एयरबेस में छुपे हैं और वो लड़ाकू विमानों तक पहुच नहीं पा रहे। आज तक चैनल पर भी रिपोर्ट आई थी कि आतंकवादी अभी तक एयरबेस के आवासीय और तकनीकी जगहों तक नहीं पहुच पाये हैं।
– 3 जनवरी को इंडियन एक्सप्रेस ने पठानकोट एयरबेस पर तैनात ‘जेट’, ‘हेलिकॉप्टर’, और हथियारों का खुलासा किया था।
– 4 जनवरी को हिंदुस्तान टाइम्स ने बताया था कि 2 आतंकवादी एक 2 मंज़िलों की ईमारत में छुपे हैं जिसमे वायु सेना के सैनिक रहा करते हैं।
– 4 जनवरी को न्यूज़24 चैनल ने खुलासा किया था कि आर्मी जे.सी.बी. उपकरणों से उस ईमारत पर प्रहार करने वाली है जिसमे आतंकवादी छुपे हैं।
– ज़ी न्यूज़ के पंजाब-हरयाणा-हिमाचल सर्किल के चैनल में एक रिपोर्टर ने कह दिया था कि आतंकवादी जिस जगह पर हैं, वहां से पास ही में लड़ाकू विमानों का अड्डा है जहाँ विमानों का ईंधन भी भारी मात्रा में उपलब्ध है।
ये सारी रिपोर्ट देख कर साफ़ हो जाता है कि एन.डी.टी.वी. अकेला नहीं था जिसने पठानकोट ऑपरेशन की रिपोर्टिंग की थी। अगर सरकार असलियत में इस वजह से चैनल को बैन कर रही होती तो ऊपर बताये गए सारे चैनल और अखबार बैन किये जाते। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। क्यों?
शायद इसलिए कि हलके से ही सही लेकिन केवल एन.डी.टी.वी. और खास कर के हिंदी एन.डी.टी.वी. ही एक मात्र चैनल रह गया है जिसमे सरकारी नीतियों की चारणभक्ति ना कर उसपर कई बार सही विश्लेषण किया जाता रहा है. और शायद सरकार इस चैनल को प्रतिबंदित कर यह बताना चाहती है कि उसके खिलाफ़ कोई भी आवाज़ बर्दाश्त नहीं.
सरकार ने फिर अपने पुराने राग अलापते हुए देशभक्ति का तान छोड़ दिया है, अमित शाह ने बयान दिया कि किसी भी हालत में देशद्रोही बातों को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा.
हमारा भी येही मानना है कि देशद्रोही और देशद्रोह के खिलाफ़ काम करने वालों को सख्त सजा मिलनी ही चाहिये, हम मांग करते हैं की गुजरात दंगों के जिम्मेदार को कड़ी से कड़ी सजा दी जाये और उनपर मानवाधिकार हनन और नाज़ी नेताओं पर चले नुरेमबर्ग मुक़दमा की तरह ही मुक़दमा चले, मुज़फ्फरनगर दंगों के दोषिओं को दुर्लभ से दुर्लभतम (rarest of the rare) अपराध के अंतर्गत मुकदमा चलाया जाये, गरीब आदिवासिओं को नक्सली कह उनकी हत्या करने वाले और उनकी ज़मीन कौडीओं के मोल पूंजीपतियों के हवाले करने वालों के खिलाफ़ देशद्रोह का मुक़दमा चलाया जाये और कड़ी सजा दी जाये.
देशभक्ति उन्माद का नाम नहीं है, और ना ही यह देश को तोड़ने और किसी भी प्रकार की सोच पर पाबन्दी लगा अपना राजनैतिक उल्लू सीधा करने का नाम हो सकता है।
अमीर-ए-मुल्क गरीबों को लूट लेता है
कभी बहिला-ए मजहब

कभी बनाम-ए-वतन

Author: Other Aspect

A Marxist-Leninist journal, based in India and aimed at analysing the contemporary world events from a Marxist-Leninist perspective.

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s

%d bloggers like this: