लेनिन

इस साल लेनिन की 150वीं वर्षगांठ हम मना रहें हैं। 22 अप्रैल सन 1870 को लेनिन का जन्म रूस के शहर उलयनवोसक में हुआ था। लेनिन ने विश्व इतिहास पर अपनी एक ऐसी छाप छोड़ी, जिसे उनके दुश्मन भी लाख कोशिशों के बावज़ूद नकार पाने में असमर्थ हैं।

विश्व मज़दूर आंदोलन और मार्क्स के विचारों पर निर्मित वैज्ञानिक समाजवाद की अवधारणा का यदि किसी ने सही विश्लेषण कर उसे ज़मीनी स्तर पर कार्यन्वित किया, तो वह लेनिन थे।

लेनिन का बौद्धिक दायरा अत्यधिक विस्तृत था और उन्होंने मानवता के समक्ष प्रस्तुत हर सवाल पर संजीदा रूप से विचार किया था। उनके द्वारा कई महत्वपूर्ण सवाल पर उस गंभीरता से बाद की पीढ़ियों ने खुद को अवगत कराने में कई मायनों में असफल रही।

तब ऐसी क्या बात थी उनमें जो उन्हें अपने समय के स्थापित नेताओं और चिंतको से अलग करती है? यह सवाल आज हमें ढूंढना होगा।

जब मज़दूर आंदोलन इतिहास के सबसे संकटग्रस्त क्षण में जी रहा है, लेनिन और उनके विचार को जानना, समझना और उनके द्वारा व्युत्पन्न परिणाम पर आने की प्रक्रिया को हमे पुनः अंगीकार करना होगा।

मार्क्स के बाद और आपने समकक्ष समाजवादी आंदोलन के नेताओं और विचारकों से लेनिन ने हमेशा विश्व घटनाक्रम और खास कर के मज़दूर आंदोलन के समक्ष प्रस्तुत सवालों को अलग नज़रिये से समझा और रणनीति तैयार किया।

मार्क्स के बाद यदि किसी ने द्वंदात्मकता और भौतिकवाद के सिद्धांत को समझा था, तो वह लेनिन थे। इस सिद्धांत को ही अपने विस्तृत लेखों में मार्क्स ने इस्तेमाल कर पूंजी के चरित्र को विश्व के सामने प्रस्तुत किया था, और पूंजी की जिन अवस्थाओं को उनसे पहले के विद्वान समझने में असमर्थ रहे, वहाँ मार्क्स ने इसके पूरे चक्र को उजागर कर हमारे सामने खुली किताब की तरह रख दिया।

हेगेल अनुयायियों द्वारा जड़ किये जा चुके उनके सिद्धांत के ख़िलाफ़ बौद्धिक संघर्ष करते हुए भी मार्क्स, हेगेल के सबसे करीब हो जाते हैं, जिसे शायद संघर्ष के दौरान मार्क्स भी नहीं सोच रहे थे।

उसी तरह से मार्क्स और एंगेल्स के बाद, मार्क्सवादियों द्वारा उनके भौतिकवादी सिद्धांत को जड़सूत्र में बांध कर ऐतिहासिक वास्तविकता को सरलीकरण के नाम पर मृत कर दिया गया था। उस समय लेनिन थे जिन्होंने मार्क्सवादी मर्म को पहचाना और मार्क्सवाद को इन जड़ मार्क्सवादियों के चंगुल से आज़ाद कर उसे वापस सर्वहारा मुक्ति की विचारधारा बना क्रांतिकारी पाले में खींच लाये।

द्वितीय अंतरराष्ट्रीय के मान्य नेताओं चाहे वो काउत्स्की हो या बर्नस्टाइन इनके विचारों की न केवल आलोचना की बल्कि इन लोगों के वैचारिक दिवालियापन और गैर मार्क्सवादी दृष्टिकोण को भी उजागर कर दिया। लेनिन के जीवन का बड़ा हिस्सा हर तरह के गैर मार्क्सवादी प्रवित्तियों से संघर्ष में बीता, चाहे वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक जनवादियों से हो या खुद रूसी क्रान्तिकार आंदोलन के भीतर व्याप्त परोक्ष और अपरोक्ष प्रवृत्ति।

लेनिन के सैद्धान्तिक संघर्ष जग प्रसिद्ध है और उनपर कई विचारकों ने संजीदा काम किया है, जिसे दुहराने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन इनके एक आयाम को जिसे उतना महत्व नहीं दिया गया, वह है लेनिन का दर्शन और खास कर के मार्क्सवादी दर्शन पर विचार।

आज ज़्यादातर मार्क्सवादी खेमे के चिंतक भी उनकी रचना ‘मटेरिअलिसम एंड एम्पीरिको कर्टिसिसम (materialism and empirio-criticism) को ही उनके दर्शन के सिद्धांत की बुनियाद मानते हैं। इस पुस्तक का उनकी महत्वपूर्ण रचनाओं में से एक है पर यह केवल अकेली रचना नहीं है।

1914 में जब विश्व प्रथम महायुद्ध में झौंक दिया गया था, और द्वितीय अंतरराष्ट्रीय, अपनी अन्तर्राष्टीयता को भूल अंधराष्ट्रवाद की गोद में बैठ चुकी थी, तब यह लेनिन ही थे, जिन्होंने इस विकट परिस्थितियों में भी अलगाव झेलते हुए भी सर्वहारा अंतरराष्ट्रीयता के परचम को बुलंद रखा।

यह कहना कोई गलत नहीं होगा कि मार्क्स के बाद यदि किसी ने हेगेल के विचारों को सही ढंग से समझ कर उसका इस्तेमाल किया तो वह लेनिन थे। प्रथम विश्व युद्ध में जब सेनाएं आमने सामने लड़ रही थीं, तब लेनिन बर्न में हेगेल के दर्शन को समझ रहे थे और अपनी रणनीति तैयार कर रहे थे। वास्तव में जिस प्रकार से मार्क्स की कालजयी रचना पूंजी पर हेगेलीय विचार का प्रभाव हमे दिखता है, उसी तरह से लेनिन की तत्कालीन रचनाओं खास कर के साम्राज्यवाद…, राज्य और क्रांति, पर हेगेलीय प्रभाव स्पष्ट है।

साम्राज्यवाद में लेनिन ने हेगेलीय दर्शन और मार्क्सवादी भौतिकवाद का अभूतपूर्व तौर पर इस्तेमाल कर पूंजीवाद की इस चरम अवस्था को इस खूबसूरती के साथ रखा कि आज एक शताब्दी बीतने के बाद भी उनके विचार की प्रासंगिकता बनी हुई है। यह थी उनकी बौद्धिक क्षमता।

लेनिन, छोटी सी छोटी घटना को भी क्रान्तिकार परिस्थिति और राजनीति से जोड़ सकने की काबिलियत रखते थे, और जिसकी जॉन रीड लिखते है कि वो किसी भविष्यवक्ता की तरह आने वाली घटना को देख पाते थे। यह कोई जादू टोना के कारण नहीं था, बल्कि उनकी वैश्विक परिदृश्य पर पैनी निगाह और पकड़ का नतीजा था।

किंतु जो बात लेनिन को लेनिन बनाती है, वह निश्चित रूप से उनके द्वारा वैज्ञानिक समाजवाद को पूँजीवाद के विरोध की विचारधारा नहीं, बल्कि उसके इतर पूंजीवाद से उच्च अवस्था की विचारधारा के तौर पर स्थापित करना के लिए की गई क़वायद है।

इसी के कारण लेनिन को वहाँ सफलता मिलती है, जहां द्वितीय अंतरराष्ट्रीय के नेता और जर्मनी जैसे विकसित पूंजीवादी राज्य तथा तब की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी (जर्मनी की) असफल रही।

जैसा कि मार्क्स और एंगेल्स की लेखनी में हमे स्पष्ट तौर पर बताया गया है कि वैज्ञानिक समाजवाद पूंजीवाद का प्रतिवाद (negation) न हो कर इससे उच्च अवस्था की विचारधारा है। इसलिए मार्क्स और एंगेल कहते हैं कि वैज्ञानिक समाजवाद, बुर्जुआ दर्शन के खात्मे से शुरू होता है।

लेनिन, ने इसी परंपरा को आगे बढ़ाया, जहां काउत्स्की जैसे धुर मार्क्सवादी भी असफल हो गए। समाजवाद समाज का निर्माण पूंजीवादी व्यवस्था से गुजरेगा लेकिन यह पूंजीवादी ढांचा के अंदर रह कर अपनी रणनीति नही तैयार नहीं कर सकता। इसलिए सर्वहारा वर्ग की पार्टी की मांग भी पूंजीवादी ढांचे से इतर की मांग होगी, यह लेनिन ने बताया।

तात्कालिकवाद से सुधारवादी राजनीति की जा सकती है, लेकिन क्रान्तिकारी राजनीति नहीं। लेनिन की यही उपलब्धि उन्हें विश्व सर्वहारा का शिक्षक बनाती है। यही कारण है कि उनके विचारों में हमें लचीलापन और सिद्धांत के प्रति सख्ती दोनों एक साथ देखने को मिलती है।

अफ़सोस है कि आज का सर्वहारा आंदोलन फिर से जड़वाद का शिकार हो गया है, जिसके खिलाफ लेनिन ने जीवनपर्यंत संघर्ष किया। उनके ही सिद्धांत की जड़ता हमे हर रोज़ खुद को लेनिनवादी कहने वालों की राजनीतिक लाइनों में नित देखने को मिल रही है। केंद्रीय जनवाद के नाम पर दर्जनों खुद को कम्युनिस्ट कहने वाली पार्टियों और ग्रुपों में हम मठाधीशों को देख रहे हैं, जो आज के उभरते सवालों के जवाब को ढूंढने में पूरी तरह से असफल हैं, अपने घिसे पीटे लाइनों का घोलमट्ठा पेश किए जा रहे हैं। असलियत स्वीकारने की क्षमता खो चुके हैं या अपने गद्दारी और खुदगर्जी के कारण स्वीकार नहीं सकते।

नतीजा, आंदोलन गर्त में जा रहा है, जनता के बीच असंतोष बढ़ रहा है, लेकिन इस असंतोष को राजनीतिक रूप कैसे दिया जाये इसपर सभी फेल हैं।

आज फिर से ज़रूरत है कि लेनिन को और उनके विचारों को पुनः आंदोलन में स्थापित किया जाए, यही उनको हमारी असली सम्मान होगा।

अंत में, आज के भारत में ऐसे कई लोग हैं और कई तो खुद को कम्युनिस्ट खेमे का भी कहते हैं जो मानते हैं कि लेनिन विदेशी थे और हमें लेनिन से ज्यादा किसी भारतीय ‘लेनिन’ को ज्यादा महत्व देना चाहिए, चाहे वो अम्बेडकर ही क्यों न हो।

उनके लिए, भारत पर लिखे लेनिन के शब्द काफ़ी होंगे, यह बतलाने को कि लेनिन को किसी देश की सीमा में बांधने वाले मूर्ख नहीं बल्कि मूढ़मति के स्वामी हैं।

जब भारत में चल रहे अंग्रेज़ विरोधी आंदोलन को विश्व में कोई खास तवज़्ज़ो नहीं दी जा रही थी, और तो और आज भारतीयता के ठेकेदार आरएसएस अंग्रेज़ी हुक़ूमत के तलवे चाट रहा था तब विश्व की हर राष्ट्रीयता की स्वतंत्रता और मुक्ति चाहने वाले लेनिन ने 1908 में लिखा था,

“हिंदुस्तान के शासकों के रूप में असली चंगेज खां बन रहे हैं. अपने कब्जे की आबादी को ‘शांत करने के लिए’ वे सब कार्रवाईयां, यहां तक की हंटरों की वर्षा, कर सकते हैं…लेकिन देशी लेखकों और राजनितक नेताओं की रक्षा के लिए हिंदुस्तान की जनता ने सड़कों पर निकल आना शुरू कर दिया है. अंग्रेज गीदड़ों द्वारा हिंदुस्तानी जनवादी तिलक को दी गई घृणित सजा…थैलीशाहों के गुलामों द्वारा एक जनवादी के खिलाफ की गई बदले की कार्रवाई की वजह से बंबई (अब मुंबई) की सड़कों पर प्रदर्शन और हड़ताल हुई. हिंदुस्तान का सर्वहारा वर्ग भी इतना काफी वयस्क हो चुका है कि एक वर्ग-जागृत राजनीतिक संघर्ष चला सके” (CW 12)

1920, में भारतीय क्रांतिकारियों को लिखे अपने पत्र में उन्होंने तब खुद संघर्ष में डूबे समाजवादी रूस (सोवियत संघ का गठन 1922 में हुआ था) के राष्ट्राध्यक्ष के बतौर खुला समर्थन दिया था। उन्होंने लिखा था, “मुझे यह सुनकर प्रसन्नता हुई है कि उत्पीड़ित जातियों के लिए आत्मनिर्णय और विदेशी और देशी पूंजीपतियों के शोषण से मुक्ति के सिद्धांतों को, जिन्हें मजदूर-किसान जनतंत्र ने घोषित किया है, अपनी स्वतंत्रता के लिए वीरतापूर्वक लड़ रहे सचेत हिंदुस्तानियों के बीच इतना हार्दिक स्वागत प्राप्त हुआ है. रूस के मेहनकतश जनसाधारण हिंदुस्तानी मजदूरों और किसानों के जागरण का सतत ध्यानपूर्वक अवलोकन कर रहे हैं. मेहनतकशों का संगठन और अनुशासन, उनका धैर्य और सारे संसार के मेहनतकशों के साथ एकजुटता अंतिम विजय की गारंटी है. हम मुसलमान और गैर मुसलमान तत्वों की घनिष्ठ संघबद्धता का स्वागत करते हैं. हमारी सच्ची कामना है कि यह संघबद्धता पूरब के समस्त मेहनतकशों तक प्रसारित हो. केवल तभी, जब हिंदुस्तानी, चीनी, कोरियाई, जापानी, फारसी, तुर्क मजदूर और किसान कंधे से कंधा मिलायेंगे और मुक्ति के एकसमान ध्येय के हेतु साथ-साथ आगे बढेंगे, केवल तभी शोषकों पर निर्णायक विजय सुनिश्चित होगी.” (To the Indian Revolutionary Association, CW 31)

Author: Other Aspect

A Marxist-Leninist journal, based in India and aimed at analysing the contemporary world events from a Marxist-Leninist perspective.

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