काम करने से इंकार (Refusal of Work)


* प्रत्यूष नीलोत्पल

आप कह सकते हैं कि मैं पागल हूं, लेकिन यह भी सच है कि मुझे काम पसंद नहीं है। वह जो वहाँ है, वह चिल्लाता है, आप सभी ने यह सुना है, आप सभी, जो लोग हड़ताल करते हैं उन्हें काम पसंद नहीं है। और इसलिए, मैं कहता हूं, ये लोग लाइन में लगने की बजाय खड़े होकर आपसे बात करना क्यों पसंद करते हैं? आप देख सकते हैं कि इनमें से किसी को भी काम पसंद नहीं है।
(नान्नी बालेस्त्रीनी, वी वांट एवरीथिंग)

पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली में पूंजी और श्रम के बीच लगातार द्वंद्व चलता रहता है। उत्पादक श्रम शक्ति की शुरुआत श्रम के उजरती श्रम में परिवर्तित हो जाने के साथ होती है। जो पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली की बुनियाद है। पूंजी श्रम को व्यवस्थित रूप से अपने नियंत्रण में लाने की कोशिश करती है और मुनाफा बढ़ाने के लक्ष्यों की ओर ले जाती है। वहीं श्रमिक पूंजी द्वारा उसके श्रम की चोरी के खिलाफ लगातार संघर्ष करता रहता है। जब यह प्रतिरोध व्यक्तिगत स्तर पर किया जाता है तब इसे मजदूर द्वारा कामचोरी कह कर बदनाम किया जाता है । वहीं जब यह सामूहिकता में किया जाता है तो इसका स्वरूप टूल डाउन, धीमी गति से काम (go slow) या फिर पूर्ण हड़ताल के रूप में परिलक्षित होता है।

मज़दूरों का काम से अलगाव (alienation) की भावना, पूंजीवादी प्रणाली का एक अभिन्न हिस्सा है। वह अपनी श्रम शक्ति का विक्रण अपनी मानसिक या शारीरिक सुख के लिए नहीं करता बल्कि खुद को जीवित रखने का कोई और अवसर प्राप्त न होने की स्थिति में मजबूरी वश करता है। श्रम क्रिया उसके स्वभाव का हिस्सा न हो यह उसकी मजबूरी है। रोजगार रूपी क्रिया उसके चेतन का हिस्सा न हो उसकी मजबूरी है।

मार्क्स ने इस प्रक्रिया को सिद्धांत बद्ध कर हमारे सामने बहुत पहले ही रख दिया था।

वे कहते हैं :-


“सबसे पहले तथ्य यह है कि श्रम मजदूर के लिए पराया होता है, यानी यह उसके सहज स्वभाव का हिस्सा नहीं होता। इसलिए वह अपने को स्वीकार नहीं करता बल्कि खुद को नकारता है वह सन्तुष्ट नहीं बल्कि नाखुश रहता है। अपनी शारीरिक और मानसिक ऊर्जा का विकास नहीं करता बल्कि अपने शरीर को गला डालता है और दिमाग को नष्ट कर लेता है। इसलिए मजदूर केवल अपने काम से बाहर रहने पर ख़ुद को महसूस करता है। जब वह काम नहीं करता है तब सहज महसूस करता है और जब यह काम करता है तब सहज नहीं महसूस करता। इसलिए उसका श्रम स्वैच्छिक नहीं, बल्कि दबाव में किया गया होता है। यह जबरिया श्रम होता है इसलिए यह किसी जरूरत की पूर्ति नहीं होता, यह महज उसके लिए कुछ परायी जरूरतों को पूरा करने का एक साधन होता है। इसका बेगाना चरित्र इस तथ्य से साफ जाहिर होता है कि जैसे ही कोई शारीरिक या अन्य बाध्यता नहीं रह जाती । श्रम से इस तरह दूरी बरती जाती है जैसे वह कोई महामारी हो”। (‘उजरती श्रम और पूँजी’)।



फोर्ड उत्पादन पद्धति के बाद कारखाना प्रणाली और काम की प्रणाली में भारी तब्दीली आयी । सूचना प्रौद्योगिकी के विकास और विकेंद्रीकृत उत्पादन के दौर ने सामाजिक कारखानों और काम का सामाजीकरण कर दिया। किंतु इस नयी प्रणाली में भी मज़दूरों के श्रम की चोरी पूर्ववर्ती विधि की तरह ही न केवल चलती रही बल्कि परिष्कृत होकर और मजबूत हो गयी। पूंजीवादी शक्ति का सामान्य रूप से समाज पर एक व्यापक प्रभुत्व है। पूंजी को अपने पुनरुत्पादन के लिए उत्पादन केंद्रित समाज की आवश्यकता होती है।यही उसकी प्रकृति है। जहां पूंजी मुख्य रूप से, एक सामाजिक शक्ति है, वहीं मज़दूरों की शक्ति समाज के एक खास पहलू यानी उत्पादन पर उनके संभावित नियंत्रण में निहित है। इतालवी मार्क्सवादी मारियो त्रोन्ती लिखते हैं कि ” इस प्रकार उत्पादन जो कि समाज का एक विशिष्ट पहलू है, समाज का उद्देश्य बन जाता है। जिसका भी इस पर नियंत्रण औऱ प्रभुत्व होता है उसका सारी चीजों पर नियंत्रण और प्रभुत्व कायम हो जाता है।”

पूंजीवादी सत्ता सामाजिक वर्चस्व पर टिकी रहती है। लेकिन पूंजी की प्रकृति ऐसी है कि उसे उत्पादन पर आधारित समाज की आवश्यकता होती है। यदि हम थोड़ी देर के लिए यह मान लें कि कारखानों और समाज का आर्थिक स्तर पर एकीकरण हो भी जाये तब भी राजनीतिक स्तर पर वर्ग संघर्ष होता रहेगा। इस स्थिति में कारखाने वर्ग को प्रतिरूपित करेंगे और समाज पूंजी का।(मारियो त्रोन्ती, वर्कर ऐंड कैपिटल)।

इस उत्पादन केंद्रित समाज को बनाने और कायम रखने के लिए पूंजी को श्रमिकों की सतत खड़ी सेना की आवश्यकता होती है। श्रमिकों के पास अपनी श्रम शक्ति को बेचने के सिवाय और कोई दूसरा विकल्प नहीं होता। एक विचार जो बाद में आधिकारिक मजदूरों के आंदोलन के भीतर जड़ कर गया है वह यह है कि वास्तव में ‘मेहनतकश जनता’ ‘काम पैदा करती हैं’ । काम की यही अवधारणा मार्क्सवादी होने का दावा करने वालों में से अधिकतर राजनीति का आधार भी है। इन मजदूर आंदोलन के नेताओं की चिंता रहती है कि वे इस ’काम करने’ की गरिमा की रक्षा करें और ’काम के अधिकार’ के लिए संघर्ष करें। साथ ही उन सभी शक्तियों के खिलाफ संघर्ष करने की भी जरूरत है जो इसकी गरिमा को कम करना चाहते हैं। यह समझ सामान्य शब्दावली में तो सही हो सकती है, किंतु मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र की समझ से बिलकुल विपरीत है। वास्तव में वह पूंजीपति है जो काम पैदा करता है। श्रमिक तो वास्तव में पूंजी का निर्माता है।उसके पास तो केवल एक अद्वितीय वस्तु है — उसकी श्रम शक्ति। जिसका वह मालिक है और जो उत्पादन की अन्य सभी स्थितियों के लिए आवश्यक है। पूँजीपति इस श्रम शक्ति का क्षरण कर मज़दूरों को वेतन का गुलाम बना देता है। इस उत्पादन के लिए श्रम के साथ मजदूर का बेगाना संबंध होता है।

समकालीन पूंजीवाद और यहां तक कि समाजवादी समाज के अपने विश्लेषण में भी मज़दूर वर्ग की राजनीति करने वाले, विकास को परिभाषित करने के लिए समान काम, न्यूनतम मजदूरी, सब को रोजगार, इत्यादि मॉडल का उपयोग करते हैं। हालांकि समाजवाद की बात करते समय वे अपने विचारों को श्रमिकों के अधिकार, गरीबी उन्मूलन, न्यूनतम मजदूरी, सार्वभौमिक धन पुनर्वितरण आदि जैसे वाक्यांशों से भर देते हैं। छद्म ‘मानवीय’ चेहरे और छद्म मार्क्सवादी पदावली के साथ वे गैर मार्क्सवादी मॉडल की तरफदारी करने लगते हैं।

‘उजरती श्रम और पूँजी’ की भूमिका में फ्रेडरिक एंगेल्स द्वारा लिखी व्याख्या अति महत्वपूर्ण है। वे लिखते हैं, कि “मज़दूर पूँजीपति के हाथों जो चीज़ बेचता है, वह उसका श्रम नहीं है। ” मार्क्स ने कहा था: “जैसे ही उसका (मज़दूर का–एंगेल्स) श्रम सचमुच आरम्भ होता है, वैसे ही वह मज़दूर की सम्पत्ति नहीं रह जाता और इसलिए तब मज़दूर उसे नहीं बेच सकता। ज़्यादा से ज़्यादा, वह केवल भविष्य का अपना श्रम बेच सकता है। यानी वह एक निश्चित समय में एक विशेष मात्र काम को पूरा करने का बीड़ा उठा सकता है। परन्तु ऐसा करने में वह अपना श्रम नहीं बेचता (बेचने से पहले श्रम करना ज़रूरी है), बल्कि एक निश्चित समय के लिए (जहाँ समयानुसार मज़दूरी मिलती है) या एक निश्चित मात्र में माल तैयार करने के लिए (जहाँ कार्यानुसार मज़दूरी मिलती है) वह श्रम-शक्ति को एक निश्चित रक़म के बदले में पूँजीपति के हाथों में सौंप देता है: वह अपनी श्रम-शक्ति को बेचता है, या किराये पर उठाता है।”

वे आगे कहते हैं कि

” जब मज़दूर अपनी श्रम-शक्ति पूँजीपति के हाथों बेच देता है, यानी जब वह उसे पहले से तय की हुई मज़दूरी–समयानुसार अथवा कार्यानुसार–के एवज़ में पूँजीपति के हवाले करता है, तब क्या होता है? पूँजीपति मज़दूर को अपने वर्कशॉप या कारख़ाने के अन्दर ले जाता है, जहाँ काम के लिए ज़रूरी सभी चीज़ें–कच्चा माल, सहायक सामान (कोयला, रंग, आदि), औज़ार, मशीनें–पहले से मौजूद रहती हैं। यहाँ मज़दूर खटना शुरू करता है।”

काम की आवश्यकता मजदूर को नहीं बल्कि पूँजीपतियों को है। अलगाव से जूझता मजदूर केवल खुद को जीवित रखने के लिये काम करता है। यदि उसे जीवन जीने का कोई अवसर दिखेगा तो वह सबसे पहले वह काम का परित्याग करेगा। यह कोई काल्पनिक कथा नहीं बल्कि हकीकत है। अमरीका के हजारों मज़दूरों को कोविड महामारी के दौरान काम से निकाल दिया गया । उनमें से बहुतेरे रहे जिन्होंने वापस काम पर आने से इंकार कर दिया। इसे ‘द ग्रेट रेजिग्नेशन’ कहा गया। सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में जहां नित बढ़ते काम के बोझ और बढ़ते अवसाद से हमें कई ऐसे आई टी मज़दूरों के बारे में सुनने को मिलता है जिन्होंने अपनी ऊँची कमाई वाली नौकरी को छोड़ खुद को इस पूरे मकड़जाल से अलग कर लिया। यह स्थिति अमरीका और विकसित देशों में तक ही सीमित नहीं है बल्कि भारत समेत लगभग सभी देशों में देखी जा सकती है।

वेतनभोगी मजदूर को पता है कि उसके सामान्य कामकाजी सप्ताह के प्रत्येक दिन (कई लोगों के लिए सोमवार से शुक्रवार/शनिवार) के दौरान अधिकतर जागने के घंटे सीधे पूंजी के लिए काम करते बीतता है। साथ ही उसका अधिकतर “खाली” समय या “अवकाश” समय पर भी काम की तैयारी करने, काम पर जाने, काम से घर आने, काम से स्वस्थ होने, काम पर वापस जाने के लिए जरूरी काम करने में ही खप जाता है। यह चक्रीय गति एक वेतनभोगी मजदूर के साथ जब तक वह काम करने योग्य है चलती रहती है। जो वेतनभोगी नहीं हैं, उदाहरण के लिए घर में बिना वेतन वाले (आमतौर पर गृहिणियां लेकिन अक्सर बच्चे और कभी-कभी पुरुष), जिनके”अवकाश” का समय ज्यादातर गृहकार्य के लिए समर्पित होता है, जिन्हें बदले में केवल घरेलू जिंदगी की ज़रूरत का ही पुनरुत्पादन नहीं होता है बल्कि इस समय का बड़ा हिस्सा हमारे बच्चों को श्रमिकों में बदलने और खुद को श्रमिक के रूप में पुन: पेश करने के रूप में शामिल है।

कहने का आशय यह कि पूंजी का प्रभुत्व केवल कल-कारखानों तक सीमित नहीं है। उसका प्रभाव और प्रभुत्व हमारी पूरी जिंदगी पर है। हम जब काम कर रहे होते हैं तब हम पूंजी के बनाये नियमों के अधीन तो रहते ही हैं, कार्यस्थल से निकलने के बाद भी हमारा “खाली” समय उस काम के लिए खुद को तैयार करने में खर्च होता है।

इस प्रक्रिया को मार्क्स ने बखूबी समझा था। वे लिखते हैं कि श्रम-शक्ति का प्रयोग, मेहनत करना मजदूर की अपनी जीवन-क्रिया है; वह उसके जीवन की अभिव्यक्ति है। और अपनी इस जीवन-क्रिया को वह जीवन-निर्वाह के साधनों को प्राप्त करने के लिए दूसरे आदमी के हाथ बेच देता है। इस प्रकार उसकी जीवन-क्रिया उसके लिए जिंदा रह सकने का साधन मात्र है। वह इसलिए काम करता है कि जिंदा रह सके। यहां तक कि उसकी दृष्टि में श्रम जीवन का एक अंग नहीं है; बल्कि वह एक तरह के जीवन का बलिदान है। वह एक माल है जिसे उसने एक दूसरे आदमी के हवाले कर दिया है। इसी लिये उसके क्रियाकलाप का फल उसके क्रियाकलाप का लक्ष्य नहीं है। वह अपने लिये जो चीज़ पैदा करता है, वह रेशम नहीं है जिसे उसने बुना है, वह सोना नहीं है जिसे उसने खान में से खोदकर निकाला है और न ही वह महल है जिसे उसने बनाकर खड़ा किया है। अपने लिये तो वह केवल मजदूरी पैदा करता है।

काम से इंकार का मतलब काम करने से इंकार नहीं है बल्कि श्रमिक द्वारा अपने श्रम के अमूर्तिकरण की खिलाफत है।

काम करने से इंकार ने चीन में बड़े पैमाने पर स्वतःस्फूर्त विरोध का रूप ले लिया है। चीन की तीव्र आर्थिक प्रगति उसके सस्ते श्रम के बड़े पैमाने पर शोषण से संभव हुई है। चीन में शोषण के गहन तरीके के साथ-साथ जीवन यापन की बढ़ती लागत ने युवा मज़दूरों के पास खुद के लिए उपलब्ध समय और वित्तीय संसाधनों दोनों को बहुत कम कर दिया है। इसके जवाब में कई युवा चीनी श्रमिकों ने नयी पद्दति अपना ली, जिसे तिंग पिंग (Ting Ping) कहा जा रहा है। जिसका अर्थ Lying Flat या दूसरे शब्दों में आराम करना है। युवा प्रचलित 996 जिसका अर्थ होता है सुबह 9 से रात के 9 बजे तक 6 दिन काम करना की बजाय इस तरह की नौकरी को छोड़ कम तनाव वाली नौकरी कर रहे हैं या कोई ऐसा ही काम पकड़ रहे हैं जिसमे उन्हें कम पैसा तो मिलता है किन्तु काम के घंटे भी कम होते हैं। इस तिंग पिंग की शुरुआत सोच विचार कर नहीं हुई, बल्कि यह आंदोलन 2021 के दौरान शुरू हुआ। जब कई लोगों ने महसूस किया कि उन पर और भी अधिक मेहनत करने और अपने सहकर्मियों से बेहतर प्रदर्शन करने का दबाव बढ़ रहा था। चीनी सोशल मीडिया साइटों पर, कई लोगों ने यह कहते हुए संदेश पोस्ट किया कि वे महामारी से पहले की स्थिति में वापस नहीं आना चाहते, और अब वे धीमी गति वाले मितव्ययी जीवन जी सकते हैं।

ऐसा जीवन जीने और खुद के लिए समय निकालने की विचारधारा किसी सुनियोजित आन्दोलन के रूप में नहीं विकसित हुई, बल्कि काम से इनकार करना मज़दूरों का पूंजीवादी पद्धति और उसके द्वारा बनाये गये आर्थिक सामाजिक नियमों के खिलाफ एक मौन विरोध है। पूंजी के पुनरुत्पादन के लिए खुद को पीसना इन मज़दूरों को स्वीकार्य नहीं है।

जैसा कि चीन की ‘समाजवादी’ ‘विकास उन्मुखी’ सरकार से अपेक्षा थी उसने इस मौन आन्दोलन को गैर कानूनी करार दिया। मज़दूरों में अमीर न बनने की चाहत के खिलाफ राष्ट्रपति जिनपिंग को एक लेख लिखना पड़ा जिसमें उन्होंने कहा कि “सामाजिक स्तर के ठोसकरण को रोकने, ऊपर की ओर बहने वाले चैनलों को सुचारू करने, अधिक लोगों को अमीर बनने के अवसर पैदा करने, विकास का एक वातावरण बनाने के लिए जहां हर कोई शामिल लेता है, और “लाइंग फ्लैट” से बचने के लिए आवश्यक है।”

लाइंग फ्लैट” कुछ नहीं करने के लिए एक आंदोलन है और यही इसे सब कुछ करने के बारे में बनाता है। यह मज़दूरों का श्रम को न बेचने का, खुद का शोषण नहीं होने देने का।यह आन्दोलन है मज़दूरों के काम करने से इंकार करने का।

हम नहीं जानते कि यह एक विद्रोह की शक्ल लेगा या नहीं, या फिर इसका भविष्य क्या होगा? किन्तु पूंजी के खिलाफ मजदूर वर्ग संघर्ष के नये रास्ते खोजता रहेगा जब तक कि इस शोषणकारी व्यवस्था का अंत नहीं होता। विश्व भर में इस तरह के उभर रहे मज़दूरों के प्रतिरोध को आज राज्य जड़ित वामपंथी शायद देखने में असमर्थ हैं या देखना नहीं चाहते ।उनके लिए आन्दोलन मज़दूर वर्ग से बाहर की वस्तु है । रोज़मर्रा के आन्दोलन उन्हें उद्वेलित नहीं करते। वे आन्दोलन को ढूंढ रहे हैं, जबकि वह उनके सामने जन्म ले रहा है …मोको कहाँ ढूंढें बन्दे मैं तो तेरे पास में ।।

Author: Other Aspect

A Marxist-Leninist journal, based in India and aimed at analysing the contemporary world events from a Marxist-Leninist perspective.

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