जी एन साईबाबा केस में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर टिप्पणी

“जो भी अमेरिकी, अमेरिकी सरकार के वर्तमान प्रशासन का मित्र हैं निस्संदेह वे एक सच्चे गणतंत्रवादी, सच्चे देशभक्त हैं। . . . जो भी अमेरिकी प्रशासन का विरोध करता है वह अराजकतावादी, जोकोबिन और देशद्रोही है। . . . हमारी सरकार के पक्ष में लिखना देशभक्ति है- इसके खिलाफ लिखना देशद्रोह है।”
(कोलंबियन सेंटिनल 1798)
जी. एन. साईबाबा और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य, केस में जिस तरह से सर्वोच्च न्यायालय की एक विशेष बेंच ने छुट्टी वाले दिन, उच्च न्यायालय के फैसले को निलंबित कर दिया, वह विश्व में नहीं तो कम से कम भारत के न्यायिक इतिहास में बिलकुल नया था। जैसा कि कई न्यायविद और टिप्पणीकारों के द्वारा उल्लेख किया गया है कि अब तक मान्य परंपरा रही है कि अदालत के नियमित कामकाज के समय से परे असाधारण बैठकें तब होती हैं जब व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मुद्दे शामिल होते हैं या गंभीर संवैधानिक संकट को टालने के लिए होते हैं। यह शायद पहली बार हुआ कि 5 नागरिकों को पुनः जेल में डालने के लिए न्यायालय बैठी। इस जल्दी की क्या अहमियत थी, या यदि वे लोग जेल से बाहर आ जाते तो क्या संवैधानिक संकट खड़ा हो जाता? यह हम माननीय न्यायाधीशों के न्यायिक समझ पर छोड़ देते हैं। वैसे भी भक्ति और अमृतकाल में डूबे देश में कुछ गलत हो इसकी संभावना कम ही है।
इस घटना पर हुई प्रतिक्रिया पुराने ढर्रे के अनुरूप ही हमें देखने को मिली। उदारवादी और वामपंथी खेमे ने इसे अपने चिर परिचित अंदाज में मोदी सरकार द्वारा उठाया गया फासीवादी क़दम और अभिव्यक्ति की आजादी पर एक और प्रहार करार देते हुए राज्य से अपील की कि साई बाबा और अन्य जेल में बंद राजनीतिक कैदियों को तुरंत रिहा किया जाए। इस कदम के विरोध में सार्वजनिक बुद्धिजीवी (Public Intellectual) के बयान भी आए और उन्होंने अपनी राजनीतिक रुझान के अनुसार सरकार को फासिस्ट से लेकर निरंकुश सत्तावादी बोलते हुए, न्यायालय और उसी सरकार से इन्हें रिहा करने की बात उठाई। साई बाबा के 90 प्रतिशत तक विकलांग होने और उनके देश की सबसे प्रतिष्ठित विश्विद्यालय का शिक्षाविद होने की बात भी उठी, जो पहले भी इनके संदर्भ में हमें सुनने को मिलती रही है।
किंतु यह घटना क्या महज़ एक व्यक्ति या समूह के खिलाफ सरकार द्वारा अपनाई गई कार्यवाही का नतीजा है, या यह किन्हीं पार्श्व कारणों का प्रत्यक्ष परिणाम है? राजनीतिक अर्थशास्त्र की मार्क्सवादी आलोचना यह बतलाती है कि किसी कार्य को समझने के लिए हमें उसके कारणों पर से नकाब हटाना जरूरी होता है। घटना केवल सतही परतों पर नहीं घटित होती, ना ही वह किसी व्यक्ति की स्वच्छंद इच्छा का परिणाम होती है। वर्ग आधारित समाज में शोषक वर्ग का आर्थिक और सामाजिक प्रभुत्व खुद ब खुद कायम नहीं रहता, शोषक वर्ग हमेशा प्रयासरत रहता है कि संस्थागत ढांचे (जिसमें कानून अहम भूमिका निभाता है) के माध्यम से वह खुद को शासक वर्ग में तब्दील कर दे। राज्य व्यवस्था के विभिन्न हिस्सों को स्वायत्त खंड में देखने और उनके कार्यानुसार उनके समर्थन या विरोध की राजनीति हमें केवल तात्कालिक मांगों तक सीमित कर देती हैं। इसके खिलाफ उपजे असंतोष को भी मांग और फौरी राहत आधारित राजनीति तक ही पहुंचा पाती है, जो कि बर्जुआ राजनीति करने वालों के लिए ग्राह्य हो सकता है, किंतु आमूल परिवर्तन की चाहत रखने वालों के लिए यह तात्कालिकता दीर्घकालिक लक्ष्य को और दूर करने वाली साबित होती है।
न्यायपालिका और राज्य
राज्य संस्थान (कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका) की शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत ने प्रारंभ से ही कानून और राज्य के बुर्जुआ सिद्धांत में एक केंद्रीय भूमिका अदा किया है। शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत न्यायपालिका की स्वतंत्रता की भी वकालत करता है। फिर भी न्यायपालिका की स्वतंत्रता स्पष्ट रूप से बहुत सीमित है। न्यायिक नियुक्तियाँ राज्य के राजनीतिक तंत्र के सर्वोच्च प्रतिनिधियों द्वारा की जाती हैं, या सर्वोच्च न्यायाधीशों के मामले में अनुमोदित की जाती हैं। न्यायपालिका पूंजीवादी राजसत्ता का अभिन्न हिस्सा है, उसके फैसले पर राज्य की तात्कालिक जरूरतों का बड़ा प्रभाव होता है।
भारत के न्यायायलों के फैसलों को भी हमें इसी नजरिए से देखने की जरूरत है। पूंजी और राज्य को लेकर व्यावहारिक-आलोचनात्मक दृष्टिकोण न होने के कारण आज हो रही तमाम घटनाओं और गतिविधियों के ऊपर की जा रही टीका टिप्पणी महज पूंजीवादी विकल्पों के बाजार की ग्राहक हो गई हैं।
पूंजीवादी राज्य के संकट का गहराना और उसकी वैधानिकता पर नित होते प्रहार, और इसके प्रतिकार में राजसत्ता द्वारा पहले से अधिक आक्रामक तेवर का इस्तेमाल, इन सब पहलुओं को केवल विधि-सम्मत ढांचे की व्याख्या के आधार पर नहीं समझा जा सकता। कार्य से उसके कारण का अनुमान होता है। राजद्रोह जैसे कानून का स्वच्छंद उपयोग (कार्य) नवउदारवादी पूंजीवाद के स्थाई संकट (कारण) में निहित है। हर वो आवाज जो पूंजी के पुनरूत्पादन और राजसत्ता द्वारा प्रायोजित सामूहिक एकीकरण की राह को दुर्गम बनाती है उसे कुचलने के लिए राजद्रोह को हथियार बनाना कोई नई बात नहीं है। न्याय व्यवस्था के पास कानूनी दबान (legal coercion) की तकनीकों का शक्तिशाली शस्त्रागार है जो उसे मौजूदा व्यवस्था के हितों की रक्षा के लिए वर्ग संघर्ष में सीधे हस्तक्षेप करने में सक्षम बनाता है। पहले जहाँ इन शस्त्रों का इस्तेमाल समय-समय पर इन्हें पालिश्ड रखने के लिए किया जाता था और जिसकी चमक से जो कुछ थोड़ी बहुत शक्तियां चौड़ी होने की कोशिश करती थीं उन्हें छाँटने के लिए किया जाता था, वहीं इनका आज मनमाना इस्तेमाल राजसत्ता की उद्विग्नता का द्योतक है — राजसत्ता को सहमति बनाने के खुद के वैचारिक-राजकीय उपकरणों (ideological state apparatuses) से विश्वास उठ चुका है, जिस वजह से ऐसे कठोर उपकरणों का इस्तेमाल करना पड़ रहा है।
जर्मन राजनीति-शास्त्री योआखिम हर्ष (Joachim Hirsch) लिखते हैं: बुर्जुआ राजनीतिक शासन प्रणाली के विभिन्न तंत्र परस्पर निर्भरता के एक जटिल संबंध में जकड़े होते हैं: वैचारिक तंत्र और सामूहिक एकीकरण के तंत्र, वर्ग शासन की वैचारिक वैधता के प्रमुख गारंटर हैं जो अंतिम विश्लेषण में बल के प्रयोग का इस्तेमाल करता है।
पूंजीवादी व्यवस्था की नींव पूंजी-श्रम संबंध है। इस व्यवस्था के आरम्भ से ही आबादी (जिसमे श्रमिकों की बहुलता होती है) का नियंत्रण उसकी अहम आवश्यकता रही है, इसी ने पूंजीवादी कानून प्रणाली को जन्म दिया। नियांत्रिक श्रमिक को प्रबंधित करना आसान होता है और वह पूंजी के पुनरुत्पादन की प्रमुख आवश्यकता भी है। ।
आज़ाद भारत में भी समय समय पर सरकारी दृष्टिकोण और योजनाओं के साथ ना रहने वालों पर राजद्रोह के मुक़दमे लादने की पुरानी परंपरा रही है। हम पाठकों को राजद्रोह पर सर्वोच्च न्यायलय द्वारा दिए गये ऐतिहासिक फैसलों में से सर्वाधिक चर्चित केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य, के बारे में याद दिलाना चाहते हैं, जिसमें सर्वोच्च न्यायलय कि खंड पीठ ने 124 ए, के प्रावधान पर कहा था,
“धारा 124ए केवल उस भाषण को दंडित करती है जिसमें सार्वजनिक अव्यवस्था या हिंसा को उकसाने की प्रवृत्ति है या इरादा है” ।
आज आई.पी.सी कि इस धारा को सर्वोच्च न्यायलय ने अस्थायी रोक लगा दी है, किन्तु आज भारत में 124ए से अधिक कठोर कानून मौजूद हैं। केदारनाथ सिंह केस के फैसले में साबित हो गया कि जो भी अपना रोष सरकार या उसकी नीतियों पर प्रकट करेगा उसपर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया जा सकता है।
सवाल केवल यह नहीं है कि वर्तमान सरकार लोगों पर राजद्रोह (हम यू.ए.पी.ए तथा ऐसे अन्य अधिनियम को भी राजद्रोह के कानूनों में ही रखते हैं) जैसे कठोर कानून क्यों लाद रही है? बल्कि महत्त्वपूर्ण यह है कि सरकार (चाहे वह तत्कालीन मोदी की हो या इसके पूर्वर्ती कांग्रेसी) को राजद्रोह जैसे कानून की ज़रुरत क्यों होती है? यदि हम देखें तो इन कानूनों को अधिकतर उन लोगों के खिलाफ इस्तेमाल किया जा रहा है जो व्यवस्था को चुनौती दे रहे हैं। चाहे वे आदिवासी इलाकों के युवा हों जो पूंजी के आगमन और उससे हो रहे विस्थापन के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं या फिर उत्तर पूर्व कि जनता जो भारतीय पूंजीवाद की विस्तारवादी नीतियों का विरोध कर रही हैं। मोदी सरकार ने हां यह ज़रूर किया कि अपनी सरकार की हिंदुत्व परस्त नीतियों के तहत इन कानूनों का मुस्लिम समुदाय के खिलाफ इस्तेमाल शुरू किया, किन्तु अधिकतर मामलों में यहाँ भी हमे धार्मिक से ज्यादा आर्थिक आधार नज़र आयेगा।
पूंजीवाद-विरोधी राजनीति करने वालों के लिए इन कानूनों की महज कानूनी व्याख्या या इनके इस्तेमाल पर क्रंदन काफी नहीं हो सकता, उन्हें कानून के बनने से लेकर उसके क्रियान्वयन तक की प्रक्रिया को पूंजीवादी व्यवस्था के पुनरुत्पादन, विनियमन और विकास की विशिष्ट आवश्यकताओं से जोड़कर देखना होगा। कानूनों और पूरे बुर्जुआ न्यायशास्त्र (bourgeoisie jurisprudence) की मार्क्सवादी आलोचना राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना का अंग है, जिसके लिए ये कानून पूंजीवादी संबंधों के व्यावहारिक व्याकरण को संहिताबद्ध करने के प्रयास मात्र हैं, ताकि मानवीय क्रियाओं को इस प्रकार नियोजित किया जा सके कि वे इन सबंधों के पुनरुत्पादन में बाधक न बनें।
इस समग्र सोच के न होने से हम केवल पूंजीवादी स्वरूपों के मकड़ जाल में फँसते चले जाएंगे और तह में घटित क्रियाओं और उनके आंतरिक अंतर्विरोधों से हमेशा अनजान रहेंगे। पूंजीवादी संचय, संकट और बाजार के विकास के वर्गीय चरित्र को बिना मध्य में लाये हम राजकीय निरंकुशता को बाह्य और आकस्मिक ही समझेंगे । फिर हमारी राजनीति भी केवल निरंकुशता से बचाव भर की रह जाएगी, मजदूर वर्ग के नायकत्व और उसकी राजनीतिक क्रियाशीलता के आधार पर समाज के पुनर्गठन के बदले हम राजसत्ता पर लगे खून के धब्बों को धोने के औजार बन जाएंगे। वास्तविकता जबकि कहीं अलग है, यदि गौर से देखें तो ये कठोर कानूनी कार्रवाई राजकीय संकट के गहराने और उसकी बढ़ती अनिश्चितता का द्योतक है। पूंजीवादी पुनरूत्पादन का गहराता संकट, और नए इलाकों में प्रवेश पर उठते रोष और आन्दोलन इसके संकट को और गहरा रहे हैं । इसका नतीजा है राज्य द्वारा बर्बर तरीकों का इस्तेमाल।
साईं बाबा और उनके कैद साथियों का मामला हो, या भीमा कोरेगांव के मामले में आरोपित बुद्धिजीवियों का सवाल हो, या फिर मुस्लिम समुदाय के नवजवानों और बुद्धिजीवियों को अपराधिकृत करना इन सब को नवोदारवादी दौर में बढ़ती राजकीय उद्विग्नता और वैधानिकता के संकट से जोड़ कर देखना होगा । यह “खतरनाक बुद्धि” को जकड़ने का मामला नहीं है, यह खतरनाक बुद्धि का खतरा दिखा कर राजकीय उद्विग्नता को सामाजिक अथवा आम बनाना है ताकि इस तारतम्यता से कुछ हद तक राजसत्ता को अपनी खोई वैधानिकता हासिल हो सके।
मोर्चा पत्रिका, अंक 41, नवंबर -दिसंबर 2022