दिल्ली में बस्तियों को गिराने का आदेश: गरीबों को उजाड़ने का षड्यंत्र

देश कोरोना और आर्थिक संकट से गुज़र रहा है जिनका सबसे ज्यादा असर ग़रीबों पर हुआ है, और इसी दौरान सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय बेंच ने दिल्ली में रेलवे लाइनों के आस पास बसी करीब 48000 झुग्गियों को तोड़ने का आदेश दे दिया है।

कोर्ट ने संबंधित सरकारी विभाग को आदेश दिया है कि तीन महीने की समय सीमा के भीतर, सभी झुग्गी झोपड़ियां तोड़ दी जाएँ, और इसी आदेश में यह भी कहा गया है कि इस के विरोध में किसी भी तरीके की राजनीतिक दखल नहीं दी जा सकती।

इस फैसले से करीब 2 से 3 लाख लोगों के बेघर होने की संभावना व्यक्त की जा रही है। इन लोगों का क्या होगा, इस पर कोर्ट ने कोई भी बात नहीं की। मीडिया के लिये भी यह बात बहुत मायने नहीं रखती, क्योंकि आज वह सस्ते मनोरंजन और कानाफूसी का साधन बन गई है। असली मुद्दों से जनता का ध्यान बंटाना उसका मुख्य पेशा हो गया है।

वैसे भी देश के उच्च और मध्यम वर्गों की नज़र में चुँकि झुग्गी बस्तियाँ और वहां के लोग शहरों की आनबान को चोट पहुँचाते हैं, इन बस्तियों का जल्द से जल्द खत्म होना निहायत ज़रूरी है। झुग्गियों में रहने वाले लोग संभ्रांतों के लिये अमूमन अदृश्य रहते हैं, जब तक कि वहाँ से आए उनके कोठियों पर काम करने वाले मज़दूरों और मज़दूरनियों से पाला नहीं पड़ता।

इन झुग्गी झोपड़ियों को न केवल शहर पर बदनुमा दाग की तरह पेश किया जाता है, बल्कि उन्हें ज़बरदस्ती अतिक्रमणकारियों और असामाजिक तत्वों के गढ़ के रूप में भी प्रचारित किया जाता रहा है। ये “गंदी” बस्तियां जहाँ मज़दूर रहते हैं, वो महामारी के उद्गम स्थल हैं — बीमारियां उन गंदी बस्तियों से हो कर शहर के तथाकथित संभ्रांत स्वच्छ इलाकों में फैल जाती है। मौत की देवी ने अमीरों और गरीबों में अभी तक फर्क करना नहीं सीखा है। इसलिये भी भावुक और भलमनसाहत से ग्रस्त लोग उन जगहों को उजाड़ कर उनके बाशिन्दों को दूर बसा देना चाहते हैं।

उन गंदी बस्तियों में रहने वाले अधिकतर लोग न तो अपनी मर्ज़ी से रहते हैं न ही वे लोग गैर कानूनी धंधों में लिप्त रहते हैं, बल्कि उन झुग्गियों में रहने वाले अधिकतर वे हैं जो अपनी श्रमशक्ति बेच कर अपनी आजीविका का साधन जुटाते हैं। मज़दूरी और अन्य श्रमिक कार्यों में लिप्त वहां का रहने वाला मज़दूर इस व्यवस्था का शिकार है, जिसमें उसे रहने के लिए ढंग के आवास के बदले अस्थायी गंदगी के बीच बसे आश्रय को अपना घर मानने को मजबूर किया जाता है।

क्यों खड़ी हो जाती हैं झुग्गियां?

दुनिया के अन्य बड़े शहरों की तरह ही दिल्ली में अधिकतर झुग्गियां शहर के उन इलाकों में बसी, जहाँ उद्योग या रोज़गार के अन्य साधन विकसित हुए।

विकसित होते औद्योगिक शहर में ग्रामीण और आस पास के क्षेत्रों से श्रमिकों का बड़ा हुजूम खिंचा चला आता है। उनके आने से उद्योगों को सस्ते मज़दूर तो मिल जाते हैं, शहर का आधुनिकीकरण होने लगता है, पुरानी सड़कें चौड़ी होने लगती है, नयी रेल लाइन बिछायी जाती है, किंतु श्रमिकों के आवास थोक भाव से गिराये जाते हैं, और शहर में किराया तेजी से बढ़ जाता है।

श्रमिकों को मिलने वाला वेतन इतना नहीं होता कि वे पहले से बने मकानों में किरायेदार के रूप में रह सकें, नये मकान के मालिक की तो बात ही नहीं की जा सकती है। तब इन उद्योगों और उपक्रमों के आस पास ऐसी श्रमिक बस्तियों का उदय होता है, जो अधिकतर सार्वजनिक ज़मीन पर बस जाती है।

उन झुग्गियों को बसने बसाने में उद्योग का फायदा होता है। वहां रहने वाले कम मज़दूरी में काम करने को तैयार रहते हैं। गैर कानूनी तौर पर बनी ये बस्तियां मज़दूरों की ज़िंदगी को नियंत्रित करने में कई बार मददगार साबित हुई हैं। मज़दूरों को बेदखली का ख़ौफ़ दिखा कर उन्हें नियंत्रित किया जाता रहा है।

दिल्ली की अगर हम बात करें तो यहाँ कारखानों के आस पास झुग्गियों का बड़ा समूह बनता रहा है। रेलवे लाइन के आस पास की जगहों पर भी बड़ी तादाद में झुग्गियां बसीं। उन झुग्गियों में रहने वाले उन्हीं उद्योगों में या उन उद्योगों से जुड़े कार्यों में अस्थायी या अनौपचारिक रूप से काम करते हैं — कूली, रिक्शावाले, खोमचेवाले, चायवाले इत्यादि।

शहर जैसे-जैसे बड़ा होता गया फैक्टरी और उसके आस पास का वह क्षेत्र शहर के बीच हो गया। वे इलाके शहर के केंद्र में आते चले गये और उसके साथ ही उन इलाकों की ज़मीन के भाव भी बढ़ते गये।

रियल एस्टेट (मकान, दुकान बनाना , बेचना) उद्योग बन गया, जिसमें अकूत पूंजी निवेश हुआ। जिन जगहों पर झुग्गी बस्ती थी उन्हें साफ कर उन पर आलीशान अपार्टमेंट, मॉल या आफिस बनाये गये और उनकी ख़रीद बिक्री पर करोड़ों रुपये का मुनाफ़ा कमाया गया।
कभी एक “विश्व स्तरीय शहर” बनाने के नाम पर, कभी सौन्दर्यीकरण के नाम पर, कभी सुरक्षा के नाम पर और कभी किसी अंतरराष्ट्रीय पर्यटन के विकास के नाम पर झुग्गियाँ तोड़ने का काम होता आया है।

दिल्ली में तो 1960 के बाद से ही मास्टर प्लान में झुग्गियों को लेकर काफी चर्चा की गयी है। उन्हें हटा कर उनमें रहने वालों को दूसरे जगहों पर बसाने की बात की गयी। अक्सर उन बस्तियों को तोड़ कर उनमें रहने वालों को शहर की सरहदों के आस पास बसा दिया गया। जैसे सन् 2000 के बाद निजामुद्दीन, रोहिणी इत्यादि जगहों पर बसी झुग्गियों को हटा उनमें रहने वाले बाशिन्दों को भलस्वा जैसी दूर और अविकसित जगहों पर 12 से 18 ग़ज़ ज़मीन आबंटित की गयी जहाँ न ही किसी प्रकार की आवाजाही की सुविधा उपलब्ध थी और न ही शहरी विकास विभाग ने वहां नागरिक सुविधाएं जैसे नाली, पीने का पानी इत्यादि की ही कोई व्यवस्था की। लेकिन लोगों को जानवरों की तरह हांक कर वहां पटक दिया।

अब पुराने मज़दूरों की ज़रूरत नहीं रह गयी।

नवउदारवादी दौर में पारंपरिक उद्योगों की जगह नये उद्योग जैसे इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी, वित्त और अन्य उद्योग (जिन्हें ‘नयी अर्थव्यवस्था’ का नाम दिया गया) का केंद्र बन कर दिल्ली उभरी।

पुराने उद्योग सन् 2000 के बाद से ही दिल्ली से हटा दिये गये थे और इन नयी कॉरपोरेट कंपनियों और ऑफिसों में पुराने मज़दूरों के लिए कोई जगह नहीं है। पूँजीपतियों के लिये झुग्गी बस्तियों में रहने वालों की कोई उपयोगिता नहीं रही। जब उन मज़दूरों की ज़रूरत नहीं तो फिर इन्हें शहर में रहने की भी ज़रूरत नहीं है। हम देख सकते हैं कि किस तरह से सन् 2000 के बाद से ही राजधानी के विकास और सौंदर्यीकरण के नाम पर एक एक करके मज़दूरों को उजाड़ा जा रहा है। इसकी चपेट में न केवल अवैध रूप से बसी झुग्गी बस्तियों को खत्म किया जा रहा है, बल्कि कई वर्षों पहले बसी रिहायशी इलाके जैसे कठपुतली कॉलोनी को भी तोड़ कर उसकी जगह सुंदर अपार्टमेंट बनाने की सरकार ने इजाज़त दे दी।

इसलिये मुम्बई की धारावी मंज़ूर है लेकिन दिल्ली की शक़ूर बस्ती और मायापुरी नहीं। मुम्बई में आज भी मज़दूरों की बड़ी तादाद की ज़रूरत है, गोदी से लेकर मुम्बई के आस पास के उद्योगों के लिए धारावी सस्ते मज़दूर की सप्लाई करती है।

यह मज़दूरों की रिज़र्व सेना का कैम्प है, यह नहीं रहा तो मज़दूर या तो इलाक़ा छोड़ने पर मजबूर हो जायेंगे या फिर अपनी मज़दूरी बढ़ाने की मांग करने लगेंगे जिसे पूंजीपति कभी नहीं होने देंगे।

इसलिये इन मज़दूरों की रिज़र्व सेना को बर्दाश्त करना पूंजीपतियों की मजबूरी है। दिल्ली में भी यही हुआ, जब तक यहां पुराने उद्योग चलते रहे तब तक बस्तियों को बसे रहने दिया गया उनके पुनर्वास की बात होती रही। अब जब रेलवेज़ को स्मार्ट बनाया जा रहा है – निजीकरण, सौन्दर्यीकरण और कई तरह के श्रम प्रक्रियाओं का तकनीकीकरण हो रहा है, तो रेलवे लाइनों के पास की बस्तियों में रहने वाले लोग अतिरिक्त जनसंख्या की श्रेणी में आ गये हैं, जिनकी नियति पहले से ही लिख दी गयी है।

पुनर्वास और आवास : कानूनी नहीं राजनीतिक सवाल

जब हम आज आवास की चर्चा करते हैं तो वह घरों में हो या राजनीतिक गलियारों में, इससे मज़दूर और गरीब गायब हो चुके हैं। आवास की समस्या की बात केवल मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग की समस्या के रूप में की जाती है — गरीबों के लिये आवास की बात बस चुनावों में सुनने को मिलती है, इंदिरा आवास हो या मोदी सरकार की घोषित आवास योजना ये सब कागज़ी फूल की तरह दिखते हैं।

दिल्ली में डी डी ए द्वारा ग़रीब तबक़ों के लिए बनायी गयी योजना भी लाखों रुपये से शुरू होती है। मतलब खुद को मध्यम वर्ग का कहने वाला भी बिना बैंक से लोन लिये इन घरों को नहीं ख़रीद सकता, बिना ढंग की नौकरी वाला क्या करेगा। आवास की समस्या को लेकर वाम आंदोलन ने भी कभी संजीदगी नहीं दिखायी और इसलिये उनका आंदोलन केवल प्रतीकात्मक हो कर रह जाता है।

आज की सरकारी योजनाओं में ग़रीब मेहनतकश पूरी तरह से गायब हो चुका है। सरकारी योजनाएँ भी निजी बिल्डरों के तर्ज पर उसी वर्ग की ओर निहारती हैं जिसके पास पैसा है या जो बैंक कर्ज़ आसानी से ले सकता है। झुग्गियों में रहने वाले इस स्कीम से पहले ही बाहर कर दिये गये हैं।

अवश्य ही सरकारें इन बस्तियों को उजाड़ने का निर्णय खुद नहीं लेना चाहतीं, और इसीलिए पिछले तीन दशकों से यही खेल चल रहा है — संभ्रांत तबकों के वकील याचिका दायर करते हैं, न्यायपालिकाएँ निर्णय सुनाती हैं और सरकारें अपने आप को मजबूर दिखा उन निर्णयों का बेधड़क और निर्मम तौर पर पालन करती हैं।

भारत में इन झुग्गियों को गिराने की प्रक्रिया को और शहरी विकास को हमें केवल विधि व्यवस्था के तौर पर न देख इसके राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझना जरूरी है, तभी हम ऐसी तमाम समस्याओं का सही राजनीतिक अर्थ समझ सकेंगे और उनसे मुक्ति की लाइन ईजाद कर सकेंगे। दरअसल सवाल आवास का है, और यह एक सामाजिक सवाल है।

जब तक कि जिस सामाजिक परिवेश में इसका जन्म होता है उसमें मूल परिवर्तन नहीं किया जाता, यह प्रश्न भिन्न भिन्न रूप में सामने आता रहेगा। यह मुद्दा केवल किसी झुग्गी के टूटने के समय का नहीं है, जो ऐसा समझते हैं इस संजीदा मुद्दे को छोटा कर रहे हैं उसे तुच्छ बना कर पेश कर रहे हैं। मजदूरों के आवास की लड़ाई उस व्यवस्था के खिलाफ बगावत है जो मजदूरों के प्रति इस्तेमाल करो और फेंक दो की नीति अपनाती है, उन्हें शहर का हिस्सा नहीं मानती। यह शहर पर शहर बनाने वालों के अधिकार की लड़ाई है।

मज़दूर समन्वय केंद्र

Author: Other Aspect

A Marxist-Leninist journal, based in India and aimed at analysing the contemporary world events from a Marxist-Leninist perspective.

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