लेनिन अपने लेख ‘मार्क्सवाद और संशोधनवाद’ में लिखते हैं कि अगर जॉमेट्री के नियम का असर मानव हितों पर होता तो उनके खंडन का प्रयास भी निश्चित तौर पर होता। लेनिन की यह बात संशोधनवाद से संघर्ष में एक सूक्ति से कम नहीं है।
लेनिन तब बर्सटीनपंथियों और काउत्स्की के संशोधनवाद से टक्कर ले रहे थे, और आज हम इनके चेलों के अलावा भांति भांति के संशोधनवादियों की पैदा हुई तरह तरह के जमात देखने को मजबूर हैं। चाहे वो यूरो-कम्युनिस्ट धारा के घोषित अघोषित समर्थक हों, ख्रुसचेवपंथी हों या अन्य तरह के ‘मार्क्सवादी’ सभी बराबर पूंजीवाद की चाकरी में लगे हुए हैं।
इन संशोधनवादियों में एक धारा वह भी है जिनके नारे और झंडे क्रांतिकारी हैं, ये स्तालिन और कोमिन्टर्न की घोषणा और नीतियों पर व्याख्यान देते हैं और उन्हें आगे बढ़ाने की बात भी सार्वजनिक तौर पर करते है पर असल में ठीक इसके विपरीत इनकी राजनीतिक लाइन होती है। यह वामपंथी आंदोलन के विभीषण हैं जिनका मक़सद इस आंदोलन को पूरी तरह से बुर्जुआ चाकरी में लगा देना है। यदि कहा जाए कि विभिन्न संशोधनवादियों की जमात में ये सबसे शातिर और खतरनाक हैं तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
इस तरह के छुपे हुए संशोधनवादियों की संख्या हमारे देश में बहुतायत में है। जो मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, स्तालिन के नाम को जपते दिखाई देते है पर काम उनके बताये रास्ते से ठीक उलटा करते हैं। इन में से ज्यादातर आजकल जय भीम लाल सलाम के नारे के साथ लैस भारतीय क्रांति करने को आतुर दिखते हैं।
लेनिन स्तालिन को तोड़ मरोड़ कर अपनी लाइन को किसी तरह से साबित करने की कोशिश करते ये मज़दूर वर्ग की मुक्ति में सबसे बड़े बाधक हैं। इनकी राजनीति के केंद्र में सर्वहारा को परास्त करने वाली नीति तथा उसे बुर्जुआ वर्ग के हितों पर न्यौछावर करने वाली होती है।
लेकिन यह काम संशोधनवादी बड़ी चालाकी से करते हैं। रंगे सियार की तरह, किसानों और मज़दूरों के हित में बड़ी बड़ी बात करना और उन्हें लामबंद करने का काम लगातार करते रहते हैं ताकि क्रांतिकारी वर्ग का बड़ा हिस्सा इनके जाल में फंसा रहे और वह पूँजीवाद के नाश के अपने ऐतिहासिक कार्यक्रम को अपने हाथ में ना ले ले।
बुर्जुआ को भी इन लोगों की ख़ास ज़रूरत रहती है। मज़दूरों किसानों में बढ़ते आक्रोश को किसी अर्थवादी एजेंडे में तब्दील करना, एक दिन की सालाना हड़ताल के नाम का जलसा करना और उनके आड़ में छटनी, श्रम कानूनों के ख़ात्मे को समर्थन देना जैसे काम में इनकी ज़रूरत पूंजीपतियों को होती है ताकि वह यह सब काम आराम से कर सके।
संशोधनवाद के हेरा फेरी वाले इतिहास में भारत के संशोधनवादियों का नायाब स्थान होगा। यूरोप और अन्य देशों की तुलना में यहां की संशोधनवादी पार्टियों ने कभी भी खुल कर मार्क्सवाद लेनिनवाद और खास कर के स्तालिन की आलोचना नहीं की। बल्कि इन पार्टियों के कार्यक्रम, दस्तावेज़ और लेख अभी भी क्रांतिकारी शब्दों से पटे हैं। लेकिन अगर इनका सही आकलन करना हो तो इनके ज़मीनी कार्यवाही को देखना चाहिए, जहां पर वो हमेशा इस या उस बुर्जुआ पार्टी की दुम पकड़ने को तैयार रहते है।
संशोधनवाद ने बड़ी सम्भावनाओं वाले आक्रोश/आंदोलन को केवल बुर्जुआ से मोल भाव करने वाले अवसर में तब्दील कर दिया, और सर्वहारा हितों के अवहेलना कर उसे बुर्जुआ हितों के अधीन कर दिया है। मेहनतकश वर्ग के बीच व्याप्त हार की भावना इसी राजनीति का परिणाम है।
ऐसा नहीं है कि इन पार्टियों में ईमानदार कैडरों की कमी है, किंतु किन कारणों से वे अपने संगठन के सड़ते शीर्ष के खिलाफ बगावत नहीं कर रहे यह अलग मसला है। शायद बरसों से सुनियोजित प्लान के तहत मार्क्सवादी राजनीतिक शिक्षा को खत्म करने की वजह से कई आम कैडर अपनी अपनी पार्टियों के नेताओं की संशोधनवादी राजनीति नहीं दिखाई देती और अगर देती भी है तो वे यह सोच कर चुप हो हैं कि कोई विकल्प भी तो नहीं है।
हर ईमानदार कम्युनिस्ट का आज यह कर्तव्य बनता है कि इस संशोधनवाद की राजनीति का विरोध करे और इसके खात्मे के लिए संघर्ष करे। स्तालिन ने कहा था पार्टी में पर्ज से पार्टी शक्तिशाली होती है, संशोधनवाद को उजागर करना और इसके विरोध में क्रांतिकारी मार्क्सवादी लेनिनवादी लाइन का झंडा बुलंद करना आज की ज़रूरत है।
संशोधनवाद से लड़ना भी फासीवाद से संघर्ष जितना ही महत्वपूर्ण है।