कृषि कानून, खेती का प्रश्न और वर्गीय दृष्टिकोण

विरोध में वर्चस्वकारी स्वर

हाल में कृषि क्षेत्र से संबंधित मोदी सरकार द्वारा लाए गए तीन कानूनों पर तथाकथित हरित क्रांति के इलाकों के किसानों ने पिछले हफ्ते भर से दिल्ली के बार्डरों को जाम कर रखा है। ये आंदोलन इन इलाकों में सबसे प्रखर रहे हैं क्योंकि यहीं पर किसानों को सरकारी सहयोग से अधिक फायदा हुआ है। ये आंदोलन इन किसानों की व्याकुलता को दिखाता है। ये किसान कृषि के अंदर खुले बाजारीकरण की अनिश्चितताओं से घबराए हुए हैं। इस आंदोलन का नेतृत्व अवश्य ही बड़े किसानों और उच्च मध्यम किसानों के हाथ मे है जिन्हें इस सहयोग से सबसे अधिक फायदा मिलता था। Continue reading “कृषि कानून, खेती का प्रश्न और वर्गीय दृष्टिकोण”

कृषि संकट और पूँजीवाद

भारतीय कृषि का संकट अपने चरम पर है और इसके खत्म होने का कोई आसार नजर नहीं आ रहा। यह संकट कोई एक दो साल का नहीं है बल्कि इसके तार 1990 के बाद से सरकार द्वारा अपनाई नीतियों से जुड़ी हुई है। सरकारी संस्थानों और उन पर आश्रित राजनीतिक आर्थिक पंडितों ने इस संकट पर कई बातें कही लेकिन मूल प्रश्न पर सभी खामोश रहे। किसान संगठनों का हाल भी यही रहा है, संकट को केवल उत्पाद का सही कीमत ना मिलने औ koर खेती के लागत का दिनों दिन महँगा होने इसी के आस पास अपनी बातों को रखा है। लेकिन क्या कृषि संकट सिर्फ न्यूनतम समर्थन मूल्य (Minimum Support Price MSP) और खेती में लगने वाले समान जैसे बीज, कीटनाशक इत्यादि के बढ़ती कीमतों की वजह से है? अगर सिर्फ यही दो संकट का कारण रहते तो फिर इसका समाधान भी आसानी से हो जाता, लेकिन ऐसा नहीं है। Continue reading “कृषि संकट और पूँजीवाद”