एक बार फिर भारत में चुनावी गर्मी बढ़ने लगी है, और राजनीतिक विकल्प और गठजोड़ की बात शुरू हो गई है। पिछले एक साल से चल रहे किसान आंदोलन के संदर्भ ने इस बातचीत को नए आयाम दिए हैं। परंतु क्या विकल्प का प्रश्न महज चुनावी और राजकीय है? क्या जन आंदोलन और जन आक्रोश चुनावी राजनीति और राजकीयता के पक्ष-विपक्ष में चारे की तरह हैं? क्या इस चुनावी पक्ष-विपक्ष का चक्र और सरकार में परिवर्तन राजसत्ता के मौलिक चरित्र पर असर डालता है? क्या यही चक्र राजसत्ता के पुनरुत्पादन का जरिया नहीं है? ऐसा तो नहीं कि हम विकल्प के सवाल को राजसत्ता के गलियारे में सीमित कर आंदोलनों के अंदर विद्यमान व्यवस्था परिवर्तन की संभावनाओं को नजरअंदाज कर रहे हैं?
चर्चाकर्ता: —– प्रत्यूष चंद्र, सुनील कुमार और प्रत्यूष नीलोत्पाल
The very title is misleading. You are counterposing electoral part of politics with day to day street struggles of masses of people. From my point of view,both are important and are complementary to each other..
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