जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध!


एक तरफ लोग मर रहे थे, वहीं सरकार इस त्रासदी को भी एक तमाशा, एक उत्सव के रूप में तब्दील कर रही थी।


1943-44 में बंगाल में भयानक अकाल पड़ा था जिसमें लगभग 30 लाख लोगों ने भूख से तड़पकर अपनी जान गंवाई थी, कई लोगों का मानना है की यह संख्या इससे कई गुना अधिक थी। इस महा त्रासदी के पीछे थी अंग्रेज़ी साम्राज्यवादी हुक़ूमत। बंगाल में लोग जब मर रहे थे तो अंग्रेज़ी सरकार वहां से अनाज निर्यात कर रही थी।

2020 में भी देश ऐसी ही महा त्रासदी से गुज़र रहा है। और आज कोई विदेशी शासन भी नहीं है, बल्कि देश में राष्ट्रवादी देशभक्त सरकार है। लेकिन वैसी ही त्रासदी की तरफ देश को जाते देखने को हम मजबूर है।

भारत में गरीबी उन्मूलन और जनसंख्या की पूर्ण गरीबी में कमी के मिथक की धज्जियां उस वक्त उड़ गई जब दुनिया ने एक बड़े पैमाने पर मज़दूरों को बेबसी और लाचारी की हालत में पलायन करते देखा जिसे सरकार और इसके मुख्यधारा के मीडिया ने बेशर्मी से मज़दूरों का स्थानान्तरण या माइग्रेशन की संज्ञा दी।

ये ऐसे लोग थे जिन्हें परिभाषित करते हुए मार्क्स ने कहा था गाँव में उत्पत्ति है लेकिन रोज़गार औद्योगिक क्षेत्र में पाते हैं।

ऐसे देश में, जहां सरकार , अमेरिकी राष्ट्रपति और उनके दल की नजर से मजदूरों के रहने की अवस्था को छिपाने के लिए दीवार खड़ी करती है, वही एक सूक्ष्म वायरस ने 21 वीं सदी के भारत में मजदूर वर्ग की असल स्थिति को उजागर कर दिया।

मज़दूरों की सामाजिक हत्या

हजारों-लाखों मज़दूरों को किसी प्रकार के परिवहन और जीविकोपार्जन के किसी साधन के अभाव में सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने गावों की ओर भीषण पैदल ही चलने की कष्टसाध्य यात्रा करने पर मजबूर होना पड़ा। रास्ते में उन्हें सरकार की बेरुखी और तानाशाही रवैये के सबसे खराब अनुभवों का सामना करना पड़ा, उनका किसी अपराधी की तरह पीछा किया गया उनपर कीटनाशक दवाओं का छिडकाव किया गया ,पुलिस ने निर्दयता पूर्वक उन्हें पीटा और यहाँ तक कि रेलगाड़ी से भी कुचल दिया। अपने देश में ही शरणार्थी बने ये लोग बगैर भोजन और पैसे के वे एक नृशंस तंत्र के शिकार बन गये हैं । हालांकि मार्क्स ने किसी दूसरे प्रसंग में कहा था लेकिन वह इस हालत पर चस्पां होती है कि कि वे एक ऐसी व्यवस्था के शिकार हैं, जिसके आपादमस्तक उसके शरीर के हर छेद से खून और पसीना टपक रहा है।

कई लोग तो सरकारी बेरुखी के ऐसे शिकार हुए कि अपने गन्तव्य तक पहुंचने के पहले ही उन्होंने दम तोड़ दिया। वे मरे नहीं बल्कि जैसा कि एक शताब्दी से भी अधिक वर्ष पहले एंगेल्स ने लिखा था उनकी सामाजिक हत्या हुई .उनमें से अधिकतर मज़दूर बिहार /झारखंड के थे। ये दोनों राज्य भारत के आंतरिक उपनिवेश की तरह हो गए हैं। इन राज्यों का पिछड़ापन पूँजी के लिये मुआफिक है। इन राज्यों से मज़दूरों का पलायन देश भर में मजदूरी को नियंत्रित रखता है । बिहार से काट कर बने झारखंड के प्राकृतिक संसाधनों से भारतीय पूंजीवाद के विकास का इंजन चलता है। अठारहवी और उन्नीसवीं शताब्दी में ब्रिटेन के लिये जैसा आयरलैंड था ,वैसा ही भारत के लिये बिहार है। झारखंड को कांगो में बदल दिया गया है, जिसकी जमीन और प्राकृतिक संसाधनों को पूंजीवादी विकास के इंजन को चलाते रहने के लिये लूटना ज़रूरी है।

इस भयानक रूप से मानवीय त्रासदी के अलावा पूंजीवादी विकास का एक और चेहरा उजागर हुआ है जिसके बारे में मार्क्स ने कहा है कि यह सापेक्ष अतिरिक्त आबादी या मज़दूरों की रिजर्व फौज़ है। इस पर हम एक लंबे आलेख की तैयारी कर रहे हैं।

एक तरफ लोग मर रहे थे, लेकिन सरकार इस त्रासदी को भी एक तमाशा, एक उत्सव के रूप में तब्दील कर रही थी।

फिर लोगों के मानवीय मूल्यों को याद दिलाते हुए प्रधानमंत्री ने एक पीएम केअर नामक नया ट्रस्ट बनाया। लोगों को पैसे दान देने को कहा गया और कंपनियों से कहा कि अपने कॉर्पोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी की रकम को इस ट्रस्ट में जम करवा दिया जाए। करोड़ो रूपये इस ट्रस्ट में आये, फिर पता चला यह कोई सरकारी ट्रस्ट नहीं है बल्कि एक निजी ट्रस्ट है -सभी कानूनों से परे।

आज तक नहीं पता की इसमे कितना पैसा आया और कहाँ खर्च किया गया।

डॉक्टर और नर्स को कोरोना वारियर्स यानी लड़ाकू कह कर सरकार ने पल्ला झाड़ लिया। और डॉक्टरों को संक्रमित हो मरने के लिए छोड़ दिया गया।

लाखों मज़दूर सड़क पर पैदल चल रहे थे, मर रहे थे पर सरकार की कुछ और ही मंशा थी?

इस रकम का इस्तेमाल कहा करना है यह उसे पता था और उसने सही समय पर इस्तेमाल करना शुरू भी कर दिया।

बिहार का चुनाव आने वाला था, ऐसे में तमाशा पैदा करने वाली सरकार किस तरह चुप रहती?

उसके चाणक्य को ऐसे समय बिहार की याद आने लाज़मी था। वैसे भी वो पिछले कई महीनों से मीडिया और जनता की नज़रों से ओझल थे। फिर गढ़ा गया एक और तमाशा। अमित शाह ने पार्टी कार्यकर्ताओं को बूथ स्तर तक जोड़ने के लिए राज्य भर में कम से कम 10,000 बड़ी एलईडी स्क्रीन और 50,000 से अधिक स्मार्ट टीवी लगाए गए थे। राज्य में अनुमानित 72,000 मतदान केंद्र हैं। जिसपर कुल खर्च केवल 140 करोड़ रुपये का हुआ।

हमें आश्चर्य इस बात पर नहीं कि शाह भाजपा इन 140 करोड़ खर्च कर दिया, अगर वो 140 हज़ार भी करते तो भी आश्चर्य नहीं होता। आश्चर्य उनपर है जो इनकी इस हरकत से दुःखी है और व्यथित हैं।

जिन को इस सरकार और मोदी शाह से उम्मीद है वे या तो बहुत भोले हैं या मूर्ख।

फासीवाद पर चलने वाले कब जनता की भलाई की बात करते हैं या क्या वे कर भी सकते हैं? उनके शस्त्रागार में होता है द्वेष, नफरत, विभाजन जैसे शास्त्र जिनका वे भरपूर इस्तेमाल करना जानते हैं।

दूसरी ओर इस महामारी ने भारत की जनता को कुछ ऐतिहासिक सबक सिखाये हैं।
★यह व्यवस्था उनके लिए कभी भी काम नहीं करेगी। युद्ध हो या शांति, महामारी या विकास, मज़दूर वर्ग हमेशा से अलगाव और सौतेलापन का शिकार होता आया है और आता ही रहेगा। इसे बदलने का एक ही रास्ता है, संघर्ष का, त्रासदी के दौरान भी सरकार का पहला कर्तव्य और ध्यान पूँजीपति के हितों की रक्षा करने का रहा। मज़दूर को मिली रियायतें तभी तक कायम है जब तक मज़दूर आंदोलन अपने उभार पर होता है। ज्यों ही मज़दूरों की पकड़ कमज़ोर हुई त्यों ही सरकार और पूँजीपति इनको खत्म करने की कवायद शुरू कर देता है। मज़दूरों को जाति, धर्म में बांटने वाली तथाकथित उदारवादी दल (बसपा, सपा, राजद, इत्यादि) भी संकट में इनका साथ छोड़ शासक और पूँजीपतियों के खेमे में चले जाते हैं।

दूसरा अहम सबक जो मज़दूर वर्ग और सर्वहारा वर्ग की बात करने वालों को मिलती है, वह इस सत्ता के चरित्र के बारे में है। पूँजीवादी व्यवस्था में सीमित फ़तह से मिली रिआयतों का कोई मायने नहीं रह जाता।

पूँजीवाद को सीमित नहीं बल्कि इसको नष्ट करना ज़रूरी है।जब तक पूंजीवादी सत्ता नष्ट नहीं होती, पूँजीपतियों से फतह की गई रिआयतें हमेशा अस्थाई रहेंगी। पूँजीपतियों ने ये रिआयते तब दी जब मज़दूर आंदोलन की आग तेज़ थी। जिस दिन यह धावा कम हुआ उसी दिन से इन रिआयतों को वापस लेने का काम शुरू हो गया।

मज़दूर तथा किसानों को हर जगह हर तरफ से कुचला जा रहा है।सत्ताधीशों की निरंकुशता और जनता के साथ किया जा रहे कुख्यात दुर्व्यवहार का हर तरफ बोलबाला है। किंतु जनता संघर्ष कर रही है, इनकी आवाज़ आज कमज़ोर ही क्यों न हो, लेकिन यह आवाज़ दिनों दिन मज़बूत हो रही है।

सर्वहारा संघर्ष कर रहा है और यही सर्वहारा वर्ग उसे विजय तक ले जायेगा।

आज अंतरराष्ट्रीय गाने के बोल की पुष्टि हो गयी है जिसे भारत समेत विश्व का सर्वहारा वर्ग गाता है…

तुम्हारे रक्त से रंजित क्रंदन,
अब दशों दिशा लाल रंग

ये सौ बरस के बंधन,

हम एक साथ करेंगे भंग

ये अन्तिम ज़ंग है जिसको,
हम एक जीतेगे एक साथ

Author: Other Aspect

A Marxist-Leninist journal, based in India and aimed at analysing the contemporary world events from a Marxist-Leninist perspective.

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