बजट 2020: अंधा बांटे रेवाड़ी

अंग्रेज़ी का एक शब्द है डेलूशनल(Delusional) जिसका अर्थ होता है भ्रम का शिकार होना, और जब कोई सरकार इसका शिकार होती है, तो वो 2020 में पेश बजट जैसा कुछ लाती है।

वित्त मंत्री श्रीमती निर्मला सीतारामन द्वारा अब तक के सबसे लंबे बजट भाषण को सुनने के बाद यह बात साबित हो गयी की यह सरकार केवल जुमला गढ़ती ही नहीं है, बल्कि उसी जुमले को जीती भी है।

जब देश के दरवाजे पर मंदी दस्तक दे रही हो और अर्थव्यवस्था का हरेक स्तम्भ चरमरा गया हो उसमे एक ऐसा बजट पेश करना जिसमे एक शब्द भी आर्थिक विकास से जुड़ा ना हो, तब समझ लेना चाहिये की आम जनता पर मंदी का असर भयानक होने वाला है।

बजट पर बात करने आए पहले कुछ आर्थिक स्थिति का जायज़ा लेना जरूरी हो जाता है।

अर्थव्यवस्था की हालत खराब है। सरकार के लाख मना करने के बाद भी कोर क्षेत्र में लगातार गिरावट देखने को मिल रही है।

ऑटो क्षेत्र की हालत सब को पता है। अगस्त 2019 के आंकड़े बताते है कि करीब 3.5 लाख मज़दूरों की नौकरी जा चुकी थी, अगस्त से जनवरी तक इस संख्या में बढ़ोतरी ही हुई है।

गाड़िया बिक नहीं रही हैं, कंपनियों के पास बिना बिकी गाड़ियों की इनवेंटरी बढ़ी हुई है।

पहली बार अक्टूबर में भारत का औद्योगिक उत्पादन 3.8 प्रतिशत था। इस गिरावट की मुख्य वजह बिजली, खनन और निर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) क्षेत्रों के खराब प्रदर्शन को जाता है। मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में 23 उद्योग समूहों के सत्रह सितंबर 2019 में नकारात्मक वृद्धि दर्ज की गई।

सितंबर-दिसंबर 2019 के दौरान बेरोजगारी दर बढ़कर 7.5 प्रतिशत हो गई। मई-अगस्त 2017, जब बेरोजगारी की दर 3.8 प्रतिशत थी, उस समय से यह दर सात से लगातार बढ़ी है।

किसानों की स्थिति सब को पता है, ऐसी स्थिति में के ‘विशेषज्ञों’ और जनता का एक बड़ा तबका सरकार से उम्मीद लगा बैठा था कि वो एक ऐसा बजट पेश करेगी जिसमें बेरोज़गारी, आर्थिक संकट, और गिरते विकास दर के बारे में कोई ठोस कदम उठाने की बात की जाएगी।

लेकिन, यह साहब की सरकार है, जिसमे जुमला हर मर्ज की दवा के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

तो यह बजट भी कुछ दिनों पहले आया आर्थिक सर्वेक्षण की तरह ज्ञान बाँटने वाला दस्तावेज़ की तरह निकल।

वित्त मंत्री ने बजट में कई कवियों की सूक्ति पढ़ी, सरकार की दृष्टि और मिशन का बखान किया, सरकार किस तरह से गुड गवर्नेंस के साथ ही गुड इकॉनमी पर काम कर रही है। और ऐसी तमाम जानकारियां दी वित्त मंत्री ने दी।

इन जानकारियों के अलावा बजट में आम आदमी, मज़दूरों और किसानों के लिए कुछ भी नहीं था।

भारत के मध्य वर्ग की बड़ी आबादी मोदी भक्त में तब्दील हो चुकी है, उसे बड़ी आस थी कि मोदी जी की सरकार इस बार उन्हें किसी बड़ी राहत की सौगात देगी, लेकिन हुआ उल्टा।

एक तो आयकर टैक्स के दो रूप कर के सभी को असमंजस की स्थिति में डाल दिया गया है कि कौन सा आयकर प्रणाली उनके लिए ज़रूरी है। जनता को कभी लाइन में लगाना कभी कैलक्यूलेटर ले कर हिसाब करने की कला मोदी जी को बखूबी आती है।

नई टैक्स प्रणाली सरकार की ओर से जनता को संकेत है कि वो जो भी बचत करती थी उसे अब भूल जाये। नई दरों से टैक्स भरने वालों को लंबी अवधि के निवेश, एलआईसी पॉलिसी, मकान किराया भत्ते, यात्रा भत्ते जैसे टैक्स-बचत वाली स्कीमों को छोड़ना पड़ेगा। मतलब अंत में आप नई स्कीम के तहत ज्यादा टैक्स ही भरेंगे।

मध्य वर्ग अपनी जरूरतों को काट कर एलआईसी, एनपीएस जैसी स्कीमों में पैसा डालता है, पूंजीवादियों की मांग थी कि इन जैसी स्कीमों को खत्म किया जाए ताकि ये पैसा बाजार में खपत हो, और ब्याज दर कम हो। जनता द्वारा इन संस्बो मे डाले पैसे पर ब्याज दर देना होता है, जिसके कारण ये संस्थाएं पूँजीपतियों को दी जाने वाले कर्ज़ की दर को एक हद के बाद नीचे नहीं कर सकती और ब्याज दर उतनी नीचे नहीं आ पाता जितना कि पूंजी के मालिकों को चाहिये।

पूँजीपतियों की यह भी मांग थी कि जनता यदि इन पैसों को बैंक, एलआईसी इत्याद में जमा करने के स्थान पर बाजार में खर्च करेगी तो मांग में जो गिरवाद आई है वो कुछ हद तक दूर हो सकती है।

एलआईसी, ईपीएफ इत्यादि के निजीकरण या बन्द करने की मांग बहुत पुरानी है और पूँजीपतियों ने कई बार यह बात भी रखी है।

बेरोज़गारी पर बजट की चुप्पी एक ही बात का इशारा करती है, सरकार के पास इस संकट का कोई हल नहीं है ना ही उसके पास इससे उबरने के कोई तरीका है।

ग्रामीण इलाकों में मनरेगा रोज़गार का एक सुलभ साधन बन कर के उभर है। इस दौर में जब ग्रामीण क्षेत्र बेरोज़गारी की तीव्र मार झेल रहा है, उस समय बजट में मनरेगा योजना के आवंटन को 13.4 प्रतिशत कम कर दिया। पिछले साल के संशोधित अनुमान 71,002 करोड़ रुपये था जिसे कम कर के घटाकर 61,500 करोड़ रुपये कर दिया गया है।

सीतारमण ने ग्रामीण विकास विभाग के तहत विभिन्न फ्लैगशिप योजनाओं के लिए केंद्रीय बजट में वर्ष 2020-21 में 1.22 लाख करोड़ रुपये से 1.20 लाख करोड़ रुपये कर दी।

इसके अलावा रोज़गार पर कोई जिक्र बजट में नहीं किया गया। सरकार के अनुसार वो रुके हुए इफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं को दुबारा शुरूनकर के रोज़गार के साधन उत्पन्न कर सकती है। लेकिन इस तरह के प्रोजेक्ट से कुछ रोज़गार जैसा रोड निर्माण में लगने वाले मज़दूर इत्यादि के लिए कुछ समय के लिए रोज़गार तो मिल जाएगा लेकिन वो ना ही स्थाई रोज़गार होगा ना ही लंबे समय तक चलने वाला।

वैसे भी हम सभी जानते हैं कि रोड इत्यादि जैसी परियोजनायें कितनी जल्दी शुरू होती हैं, सरकार की मशीनरी की रफ्तार से हम सभी परिचित हैं।

ऐसे में सरकार का इस संकट पर कोई ठोस कदम नहीं लेना उसकी उदासीनता का परिचायक है वह भी तब जब रोज़गार सृजन 45 साल के निचले स्तर पर है। यह संकट और गहरा होता जाएगा, जो बजट के देखने से

बेरोज़गारी के बाद यदि किस क्षेत्र का संकट भयानक रूप धारण कर लिया है तो वह है कृषि क्षेत्र।

किसानों की आत्महत्या करने की बात अब आम सी हो गयी है, शायद इसलिए सरकार ने 2016 के बाद इस आंकड़े को जारी करना ही छोड़ दिया।

भारत की करीब 60 फीसदी आबादी ऐसी है विकास जिससे दूर रही है। इन लोग जिनकी संख्या करीब 70 से 75 करोड़ है, वे किसी प्रकार ही अपना जीवनयापन कर पाते हैं।

किसी भी सरकार की नज़र इन पर नहीं गयी, कुछ एक योजनाओं (जैसे मनरेगा) का कुछ असर इन पर पड़ा पर इस समूह के उत्थान के लिए कोई भी सरकार अत्यधिक चिंतित भी नहीं दिखी।

यह वही समूह है जो भारत के श्रम को सस्ता और पूँजीपतियों के बढ़े हुए मुनाफे का बहुत बड़ा हिस्सा पैदा करता है।

अगर कहा जाए कि इस बड़ी तादात की वजह से ही भारतीय पूंजीपति विश्व मे अपनी दखल बना पाते हैं तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी।

बेरोज़गारी की मार इसी समूह पर सबसे ज्यादा हुई है, जिसके कारण शहरी और ग्रामीण क्षेत्र दोनों में मांग में भारी कमी आयी है।

देश में असल वेतन [real wage] में भी गिरावट देखी जा सकती है।

ग्रामीण क्षेत्रों में तो 2014 से यह केवल 0.5 फीसद से बढ़ी और जब इसे हम मुद्रास्फीति की दर से मिलायें तो असल में साल दर साल यह कम होती जा रही है।

रोज़गार सृजन 45 साल के निचले स्तर पर है। भारत जैसे देश के लिए यह समस्या और भी गंभीर रूप धारण कर लेती है, जिसमें लगभग 65% आबादी 30 वर्ष से कम आयु की है।

नए रोज़गार का सृजन होगा कैसे इस पर मंत्री जी ने आ0ने 2 घण्टे से ज्यादा उबाऊ भाषण में कुछ नहीं कहा, न ही उन्होनें इंफ्रस्ट्रक्चर पर सरकार क्या करेगी इस पर ही कुछ ठोस बात की।

विकास की गिरावट का सबसे महत्वपूर्ण कारण पूंजी निवेश में गिरावट है। यह 2010 में जीडीपी का 39.8% था और अब 11% कम हो 28 प्रतिशत आ गया है।

फिर भी वित्त मंत्री को उम्मीद है कि पूंजीगत व्यय में 21% की वृद्धि होगी। 2019-’20 में केंद्रीय पूंजीगत व्यय 3.36 लाख करोड़ रुपये था। इस प्रकार, हम अनुमान लगा सकते हैं कि इस वर्ष पूंजीगत व्यय में लगभग ६०,००० करोड़ रुपये की वृद्धि होगी।

लेकिन ये आएगा कहाँ से?

निजी क्षेत्र नए पूंजी निवेश को तैयार नहीं है, 2 लाख करोड़ रुपये के बाद भी उसने नई निवेश को रोक रखा है, और सरकारी खजाने खाली है।

इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश की बड़ी योजना सरकार ने बना रखी है, लेकिन असलियत में इन योजनाओं के लिए आवंटित धन सरकारी झूठ की कलई खोल देता है। एक उदाहरण प्रस्तुत है।

पिछले साल वित्त मंत्री ने अर्थव्यवस्था को चालू करने के लिए एक विराट योजना की घोषणा की थी। यह थी राष्ट्रीय इंफ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन, इस कि घोषणा के वक़्त सरकारी बयान के मुताबिक यह योजना अन्य इंफ्रास्ट्रक्चर की योजनाओं को सक्षम करेगा ताकि वो नए रोज़गार को पैदा कर सके, जीवनयापन के स्तर को ऊंचा कर सके और विकास को और समावेशी बना सके।

इस योजना के लिए 102 लाख करोड़ रुपये 5 सालोन में आवंटित करने की बात की गई थी, और इसे अर्थव्यवस्था को वापिस पटरी पर लाने के इंजन के तौर पर बताया गया था।
इसमें से लगभग 23 लाख करोड़ रुपये की योजनाओं की घोषणा की गई। लेकिन इसके लिए नए बजट में 22, 000 करोड़ रुपये का प्रावधान है।

ऐसी ही अन्य झूठ और फर्ज़ीवाड़े का मिश्रण इस बजट में हमे देखने को मिलता है।

असल में संकट को लेकर बुर्जुआ खेमे के दो हिस्से हो चुके है, एक वह है जो कल्याणकारी राज्य की अवधारणा पर वापस लौटना चाहता है, जैसे राज्य विकास के लिए खर्च कर जिससे लोगों के पास पैसे आ जाएंगे और वो खर्च करेंगे जिससे मांग बढ़ जाएगी।

दूसरा हिस्सा नव उदारवाद को और तेज़ी से लागू करना चाहता है जिससे विकास की दर जल्दी से उठने लगे, इसके समर्थकों का मानना है कि सरकार को जल्द से जल्द सभी सार्वजनिक संपत्ति को बेच देना चाहिए और मील पैसों को इन जगह लगाए जिससे पूंजीपति निवेश कर सके।

असल में दोनों विचारधारा का दिवालिया पिट चुका है, देश में नगदी की कमी नहीं है ना ही माल की असल कमी है तो वह है जनता खास कर के मेहनतकश के पास नगदी की। सरकार के पास आने पीछे किये फैसलों के कारण अब इतनी रकम बची नहीं कि वह खुद से इंफ्रास्ट्रक्चर विकास में पूंजी निवेश कर सके, और ना ही पूंजीपति उसे करने देंगे।

अनाज सड रहा है लेकिन बाजार नहीं पहुंच रहा, सरकारी एफसीआई बंद होने की स्थिति में है, ब्याज दर को अगर सरकार बढ़ाना चाहे तो पूँजीपतियों के ऋण की दर में भी बढ़ोतरी होगी और उनका मुनाफा कमा होता जाएगा।

ऐसे में यह पूँजीवाद का संकट और विकराल रूप धारण करने जा रहा है।

संकट से निकलने का समाधान है, बाजार आधरित अर्थव्यवस्था को खत्म कर समाजवादी अर्थव्यवस्था का निर्माण।

Author: Other Aspect

A Marxist-Leninist journal, based in India and aimed at analysing the contemporary world events from a Marxist-Leninist perspective.

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