–दामोदर
राज्य की आम जनता के लिए विकास विनाश का रूप ले चुका है। राज्य में भूख से पिछले 3 सालों में 23 लोगों के मरने की खबर आई है, असल में यह संख्या कहीं अधिक होगी। कुपोषण के मामले में भी राज्य अव्वल है, पांच वर्ष से कम उम्र के आधे से अधिक बच्चे कुपोषित हैं और इनमें से 12 प्रतिशत गंभीर रूप से कुपोषित हैं। परिणामस्वरूप तीन वर्ष से कम उम्र के लगभग आधे बच्चे ठिगनेपन से ग्रसित हैं।
झारखण्ड में सिर्फ 81 सीटें हैं लेकिन राज्य मे चुनाव की अवधि करीब करीब 1 महीने की है। चुनाव नीरस और उक्ता देनेवाला साबित हो रहा है।
राज्य में वैसे पार्टियों की कमी नहीं है, और करीब करीब सभी दलों ने अपने उम्मेदवार मैदान में उतारे हैं।
कांग्रेस महाराष्ट्र को दोहराने की उम्मीद में है, तो वहीं भाजपा अपनी पूरी ताकत इस राज्य में झोंक चुकी है।
अन्य क्षेत्रीय दल भी चुनाव के बाद त्रिशंकु विधान सभा की उम्मीद देख कर आस लगा बैठे है, कि अगर उनकी उम्मीद के मुताबिक त्रिशंकु विधान सभा बनी तो उनकी पूछ और अन्य सुविधाओं का कोई जवाब ही नहीं होगा।
एक समय राज्य में वाम दलों की स्थिति अच्छी रहती थी, खास कर के मार्क्सवादी समन्वय समिति, भाकपा, और लिबरेशन की मज़बूत पकड़ कई इलाकों में थी।
राज्य के बनने के बाद से भाजपा ने इस राज्य पर सबसे ज्यादा शासन किया, लेकिन क्या भाजपा क्या कांग्रेस या जेएमएम सभी के राज में जनता का विनाश ही हुआ।
आज हालत यह है कि प्राकृतिक सम्पदा से भरपूर होने के बावजूद राज्य हर आर्थिक पैमाने पर देश के सबसे गरीब राज्यों में से एक है, वह तब जब की इस राज्य में भारत का करीब ४० फीसदी सम्पदा का भंडार है।
तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट के मुताबिक झारखंड में , ग्रामीण और शहरी गरीबी का स्तर सभी बड़े राज्यों में सबसे ज्यादा है। हालाँकि बाद के सरकारी आंकड़े यह भी बताते हैं की राज्य में गरीबी रेखा से ऊपर आये लोगों की संख्या अन्य राज्यों की तुलना में सबसे ज्यादा है, लेकिन वहीं दूसरी ओर आज भी राज्य के 46% गरीबी रेखा से नीचे अपना जीवन जी रही है।
लेकिन फिर भी सरकार कह रही है कि राज्य में विकास हो रहा है। इसी विकास के कारण राज्य के करीब 65 लाख लोग, Indian People’s Tribunal on Environment and Human Rights, की 2014 की रिपोर्ट के मुताबिक विस्थापित हो गए। 2019 तक कितने हुए इसका आंकड़ा हमारे पास नहीं है, लेकिन इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि इस संख्या में वृद्धि ही हुई होगी, कमी होने की सम्भावना हो ही नहीं सकती, क्योंकि सरकार देश के विकास के लिए कमर कसे हुई है।
पिछले साल गोड्डा में अदानी द्वारा 1600 मेगावाट की बिजली परियोजना की शुरुआत की गयी थी, जिसके लिए 11 गांवों से करीब 2300 एकड़ ज़मीन ली गयी। इस परियोजना का स्थनीय लोगों द्वारा जम कर विरोध किया गया और प्रशासन से झड़प और मुठभेड़ भी हुई। लेकिन अधिकतर ज़मीन थी ब्राह्मणों और पटेलों की, जिनका कृषि से सम्बन्ध लगभग ख़त्म हो चुका है, उन्हें 49 लाख एकड़ के रेट से मुआवजा मिला तो फिर देशभक्ति की भावना क्यों न जागती, ज़मीन अदानी को बिलजी उत्पादन करने के लिए दे दिया, बिजली पैदा होगी झारखण्ड में, कोयला आएगा ऑस्ट्रेलिया से और बिजली को बेचा जायेगा बांग्लादेश को, मुनाफा मिलेगा अदानी को, अब सोचिये आखिर राज्य की जनता को क्या मिला? इस तरह के कई विकास झारखण्ड में देखे जा सकते हैं।
जहाँ एक तरफ इस तरह का विकास हो रहा है, वहीं दूसरी ओर धनबाद, बोकारो जैसे पुराने औद्योगिक शहर खंडहर में तब्दील होते जा रहे हैं। एक समय बोकारो तेज़ी से बढ़ता हुआ औद्योगिक शहर था जो बोकारो स्टील प्लांट और पॉवर प्लांट के आस पास विकसित हुआ था, लेकिन आज दोनों कम्पनियों की हालत ख़राब है, और बंद होने की स्थिति में है। सरकार भी इनको बंद करने का मन बना चुकी है, वही हाल दामोदर वैली कारपोरेशन का है जिसके बारे में कहा जा रहा है कि इसके निजीकरण की प्रक्रिया किसी समय भी शुरू की जा सकती है।
झारखंड के गठन के बाद से ही राज्य विऔद्योगीकरण (Deindustrialization) का शिकार हो रहा है। 1990 के दशक के अंत में सकल राज्य घरेलू उत्पाद में उद्योग का हिस्सा लगभग 60% था जो आज, 40% तक कम हो गया है।
कारखानों में लगे व्यक्तियों की संख्या 1999-2000 और 2017-18 के बीच निरपेक्ष रूप से कम हुई है। फैक्टरियां छोटी हो गई हैं, और जो भी पूंजी निवेश हुआ है, वो ज्यादातर खनिज निकासी के क्षेत्र में हुई है। इसका नतीजा है की राज्य की जनता के लिए कोई भी नई नौकरी नहीं मिली है, ना ही राज्य का कोई खास विकास हुआ है, जैसा की किसी औद्योगिक राज्य में देखा जा सकता है।
झारखण्ड, आज भारत का कांगो बन चुका है, यहाँ पूंजीपति केवल उसकी खनिज सम्पदा के दोहन के लिए निवेश करने आते है।
राज्य की आम जनता के लिए विकास विनाश का रूप ले चुका है। राज्य में भूख से पिछले 3 सालों में 23 लोगों के मरने की खबर आई है, असल में यह संख्या कहीं अधिक होगी। कुपोषण के मामले में भी राज्य अव्वल है, पांच वर्ष से कम उम्र के आधे से अधिक बच्चे कुपोषित हैं और इनमें से 12 प्रतिशत गंभीर रूप से कुपोषित हैं। परिणामस्वरूप तीन वर्ष से कम उम्र के लगभग आधे बच्चे ठिगनेपन से ग्रसित हैं।
लेकिन, राज्य में धार्मिक भक्ति में कोई कमी नहीं है, गरीबी, विस्थापन से चाहे लोगों का खून नहीं खौलता, लेकिन हिन्दू मुस्लिम के नाम पर ज़रूर मरने काटने को भुत से भक्त तैयार दिक्ते हैं, रघुबर दास के राज में अब तक २२ लोग की धर्म के नाम पर हत्या (मौब लींचिंग) की जा चुकी है, लेकिन सरकार ने कोई संज्ञान लिया हो ऐसी खबर नहीं आयी।
हैरानी की बात है कि ऐसे राज्य में कोई भी दल के पास वैकल्पिक मुद्दा नहीं है, सभी वही घिसे पिटे मुद्दों पर चुनाव लड़ रहे हैं, और जीतेंगे भी।
वाम पार्टियों की सीट. जहाँ वे मजबूत दिखाई दे रही हैं वो घट कर केवल दो रह गयी हैं, धनबाद में निरसा और गिरिडीह की बगोदर। लेकिन इन दोनों सीट पर चुनाव लड़ रहे वाम प्रत्याशी अपने पिता की हत्या के बाद चुनावी मैदान में आये और विधान सभा पहुचें भी, लेकिन दोनों की राजनीतिक लाइन को देखते हुए उनमें और अन्य गैर भाजपा दलों में भेद करना दुरूह काम होगा। लाल झंडा, और कामरेड शब्द को छोड़ दें तो इनके द्वारा उठाये गये मुद्दे और इनका काम कोई भी इनके वाम आन्दोलन को नई दिशा देने वाला नहीं लगता।
दूसरी वाम पार्टियों के बारे में जितना कम कहा जाये उतना बेहतर, एक राज्य जहाँ शासक वर्ग की नीतियों के चलते लाखों लोग विनाश के कगार पर पँहुच चुके हैं, वहन अगर वामपंथ मृतप्राय हो फुटबाल और बस स्टैंड बनाने की राजनीति करने लगे तो ऐसे वामपंथ का ख़तम होना ही ठीक है।
इस खत्म हुए वामपंथ से ही क्रन्तिकारी विचार से लैस पार्टी का उद्गम होगा। और इसी दिशा की तरफ आज मार्क्सवादी लेनिनवादियों को अपनी ताकतों लगनी होगी।