कामरेड सतनाम का जाना और भारतीय वामपंथ की त्रासदी

कामरेड सतनाम हमारे  बीच नहीं रहे, जिन्दगी के आखिरी वर्षों में अवसाद (डिप्रेशन) और अकेलापन झेलते हुए अंततः उन्होंने ने भी वही राह चुनली, जिसे कुछ ही वर्ष पहले कामरेड कानू सान्याल ने चुना था। किसी का इस तरह जाना और खास कर के ऐसे कामरेड का जिसने अपनी पूरी जिन्दगी ही उस नये सवेरे, उस शोषण मुक्त समाज को हकीकत में उतरने के लिये समर्पित कर दिया हो, वही इतना निराश हो जाये की उसे जिन्दगी ही अर्थहीन लगने लगे यह, एक दिल कचोटने वाली स्थिति को उत्पन्न करता है। कानू से सतनाम तक, और इन दोनों के बीच ना जाने कितने और हमारे पुराने और नये साथी अपनी जिन्दगी को ही खत्म करने जैसा निर्णय लेने पर मजबूर हो रहे हैं। पिछले कुछ दिनों में तो कई कामरेड के बारे में सुनने को मिलाता रहा ही कि उनकी मृत्यु आत्महत्या की तरफ़ ही इशारा करती है।

सतनाम के द्वारा उठाया गया कदम, केवल एक आदमी के स्थिति के बारे में इशारा नहीं करता, बल्कि यह भारतीय वामपंथी आन्दोलन के संकट की ओर इंगित करता है, जिसे चाह के भी नाकारा नहीं जा सकता। भटकाव, बिखराव और पिछले कुछ दशकों से ठहराव से जूझता हमारा आन्दोलन में साथियों का विश्वास टूटना और निराशाजनक स्थिति का कोई विकल्प न पाना खुद में पराजयवादिता और हताशा को जन्म देता है। दुखद तो यह है, कि आज भी कठमुल्लेपन का शिकार स्वघोषित आन्दोलन के नेता इस बात को या तो समझ पाने में नाकम है या फिर उनमे आन्दोलन के संकट को देखने और उसपर विवेचना करने की शक्ति बाकी ही नहीं रही। दोनों स्थिति एक भयावह भविष्य की ओर इशारा करती है। पुराने घिसे पिटे राजनीतिक लाइन से चिपके रहना और उसे ही किसी तरह से आडा तिरछा कर पेश करना शायद इस आन्दोलन के खून में बस गया है, हम जूते को पैर में फिट करने के लिये पैर काटने के पक्षधर हो गए है। दुनिया आगे बढ़ गयी है और हम आज भी 1970 के दशक में कदम ताल कर रहे है, और कदम ताल करते करते सेना थक तो सकती है, लेकिन आगे नहीं बढ़ सकती। क्या वही हमारे साथ नहीं हो रहा? वाम आन्दोलन किसी बाहरी शत्रु से नहीं पराजित हुआ है और ना ही हो रहा है, इसका संकट खुद का के अन्दर का है, उस हठधर्मिता (dogma) का है, जिसने पुरे आन्दोलन के आँखों पर जैसे कलि पट्टी लगा दी हो, चाहे पिछले 40 वर्षों से जंगलों में या 65 वर्षों में संसद में बैठ कर क्रांति करने वाली पार्टी हो या इन दोनों के बीच खंड खंड बिखरे दर्ज़नों ग्रुप, प्री-पार्टी संगठन, या फिर अकेला वामपंथी, कोई भी ठोस बात नहीं बोलता, शायद ठोस आंकलन ना करना ही इस देश के वाम आन्दोलन का मार्क्सवाद-लेनिनवाद को तोहफा है।
जब भी ऐसी दुखद घटना घटती है तो विषद के साथ साथ हमे कुछ आवाज़ उन कामरेड की भी सुनायी पड़ने लगती है, जो अंग्रेजी के शब्द जजमेंटल (आलोचनात्मक) हो कर पूरी घटना को एक व्यक्ति के भगोड़ेपन उसका कमज़ोर होना, जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर पिंड छुड़ा लेते हैं। लेकिन जो तटस्थ हैं, इतिहास उनका भी अपराध लिखेगा।
1950 के मध्य और 60 के दशक, से वाम आन्दोलन ने केवल तरह तरह के प्रयोग ही किये हैं, चाहे सी.पी.आई और बाद में सी.पी.एम का कांग्रेस और अन्य बुर्जुआ पार्टियों के साथ यूनाइटेड फ्रंट की नीति हो या फिर माओवादिओं की जातिगत समीकरण, ममता के साथ बैठना हो, इन सभी प्रयोगों में कहीं हमारा अपना सिद्धांत पीछे छूटता गया, हम मार्क्स, लेनिन के उदाहरण को दोहराते तो रहे, पर उनका मर्म भूलते गये, आज भी शायद ही कोई पार्टी/ग्रुप हो जिसके पास देश में बढ़ते फ़ासीवाद से मुकाबला करने का ठोस आंकलन और प्लान है। जय भीम-लाल सलाम इसी कड़ी की नवीनतम प्रयोग है, जिसकी परिणति यदि इतिहास को देखें तो कुछ बहुत आशावादी नहीं दिखती, हम बुर्जुआ पार्टिओं के साथ तो जाने के आतुर नज़र आते हैं लेकिन खुद अपने दुसरे क्रन्तिकारी कम्युनिस्ट ग्रुप के साथ संयुक्त मोर्चा बनाने में कतई उत्साहित नहीं होते, हमे अपनों से डर है।
आज समय आ गया है, कि हम सब साथ मिल बैठ कर एक बार फिर से विचार करें कि, कहाँ हमसे चूक हो गयी, जिसके कारण कानू और सतनाम को इस कदर दुनिया छोडनी पड़ी? विचार करें कि कैसे हम अपने सिद्धांत को वापिस उसके मर्म में फिर से जाने, एक शब्द में वापिस सही मार्क्सवाद-लेनिनवाद की तरफ चलें, अपने झूठे अहंकार, सम्प्रदायवाद, कठमुल्लेपन को छोड़ना ही होगा नहीं तो सामजिक आन्दोलन की गतिकी, हम सबी को इतिहास के कूड़ेखाने में दफ़न कर देगी।
यदि आज हम इन बातों पर संजीदगी से कुछ समय लगा लें, तो यही सतनाम को सच्ची श्रद्दांजलि होगी।

Author: Other Aspect

A Marxist-Leninist journal, based in India and aimed at analysing the contemporary world events from a Marxist-Leninist perspective.

One thought on “कामरेड सतनाम का जाना और भारतीय वामपंथ की त्रासदी”

  1. हम बहुत ऊँचे अच्छे पूर्ण भौतिक विचारों को रखने वाले , सब कुछ त्याग कर समाज को उच्चतर अवस्था में परिवर्तित करने के लिये संघर्षरत /प्रतिबद्ध हो सकते हैं लेकिन समाज में व्याप्त अनेक विभिन्न कमजो रियों से पूर्ण रूप से मुक्त हो पाना , उनसे स्वयं को प्रभावहीन रख पाना व्यक्ति के लिये आसान नहीं होता है . कामरेड सतनाम एवं अन्य कामरेडों द्वारा स्वयं को समाप्त कर लेने की घटना का विश्लेषण में इस कारक को बिल्कुल छोड़ दिया गया है .सम्बंधित साथियों की समय विशेष पर उनकी मानसिक अवस्था का विश्लेषण छोड़ देना शायद उचित नही है ,मेरा अभिप्राय उन्हें कमजोर बताने का नही है . आपकी चिंता कहीं यह प्रश्न /भय तो खड़ी नही करती कि ऐसे साथियों को इन्हीं रास्तों से गुजरना पड़ सकता है ? क्या वे दिशाहीन वामपन्थी आंदोलन से उत्पन्न परिस्थितियों से अनभिग्य थे ? शायद नहीं, अनेक ऐसे साथी गर्वपूर्ण जीवन व्यतित कर रहे हैं .
    हताशा /निराशा दोनों के उत्पन्न होने का एक कारण है – अपेक्षाएं. हम जो भी काम करते हैं उनका परिणाम हमारे प्रतिकूल भी हो सकता है और लम्बे अरसे से ऐसा हो तो निराश या हताश होना स्वाभविक ही है . यहां सवाल है लम्बे अरसे की जा रही हमारी क्रियाएं अनुकूल प्रतिक्रियाएं पैदा नही कर पा रही थीं तो हम किस द्वन्द्वात्मकता में ज़ीए चले जा रहे थे? कहीं विरोधी समागम के लिये हमारी क्रियाएं कुछ ज्यादा ही उच्च स्तर की तो नही थीं ?जो हमारी अपेक्षाओं को बढ़ा रही थीं और अंतत: निराशा पैदा कर रही थीं फिर अंत में हताशा और फिर का0 सतनाम एवं अन्य द्वारा घटित घटनाएं ….? मेरे विचार से स्वयं की गतिविधि एवं उसमें दूसरों को प्रभावित करने की क्षमता ही सबसे विचारणीय है .
    जय भीम -लाल सलाम कोई नियोजित प्रयोग नही है ,यह शासक वर्ग द्वारा तेज हमले का परिणाम है ,लेकिन इन्हें प्रतिनिधित्व करने वाली ताकतों को एक नही होना चाहिये क्या ?
    वामपंथी आंदोलनों की घीसीपीटी लाईन एवं हठधर्मिता का सवाल सही है लेकिन हमारे समक्ष आंदोलन से पैदा हुई एक ज़मीन भी है जहां हम कार्य करने के लिये स्वतंत्र हैं और आप भलिभांति जानते हैं – गलतियां,कमजोरियां , भटकाव बैठकर बात करने से दूर नही हो सकती (जिन बड़े सवालों को आपने उठाया है ) सिवाय समान गतिविधि वालों के बीच न्युनतम संभव एकता स्थापित कर हर वक्त दायरे को बड़ा करते रहने का प्रयास –का0 सतनाम को मेरी श्रद्धांजलि

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